जन्मदिन पर विशेष : अपने ही गांव में बेगाने हो गए हरिवंश राय बच्चन, पुस्तकालय बन गया राशन का गोदाम

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हरिवंशराय बच्चन

हरिवंशराय बच्चन
– फोटो : अमर उजाला।

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जीवन में वह था एक कुसुम, थे उस पर नित्य निछावर तुम, वह सूख गया तो सूख गया, मधुवन की छाती को देखो, सूखी कितनी इसकी कलियां, मुर्झाईं कितनी वल्लरियां, जो मुर्झाईं फिर कहां खिलीं, पर बोलों सूखे फूलों पर कब मधुवन शोर मचाता है। जो बीत गई सो बात गई। हिंदी साहित्य के अद्भुत चितेरे हरिवंश राय बच्चन की ये पंक्तियां उनके अपने ही प्रतापगढ़ स्थित गांव बाबूपट्टी पर सटीक बैठती हैं। अब तो वह अपनों के बीच बेगाने दिखे। गांव में उनकी 115 वीं जयंती पर कोई शोर या तैयारी नहीं दिखी। मगर पूछने पर यह जरूर बताया कि बच्चन जी तो हमारे ही गांव के ही थे। यहां की नई पीढ़ी ने बच्चन की रचनाओं को भले ही न पढ़ा हो मगर उनका नाम जरूर सुना है।

पैतृक गांव में यादें सहेजने को बने पुस्तकालय बन गया राशन का गोदाम

मधुशाला जैसी अमर कृति से अपनी अमिट छाप छोड़ने वाले प्रख्यात साहित्यकार और कवि हरिवंश राय बच्चन अपने ही गांव में बेगाने हो गए हैं। पैतृक गांव बाबूपट्टी में उनसे जुड़ी स्मृतियां बिखरी पड़ी हैं, मगर सहेजी नहीं जा सकीं। थोड़े बहुत प्रयास जरूर हुए, जो परवान नहीं चढ़े। इस कड़ी में उनकी स्मृति में बने पुस्तकालय का हाल देखा जा सकता है। उसे अब राशन का गोदाम बना लिया गया है।

पुस्तकालय में किताबें खोजने पर भी नहीं दिखाई दीं। वहां एक आलमारी व बाबूजी की धूल के गुबार से सनी तस्वीर जरूर दिखी। दो कमरे और एक बड़े हॉल वाले पुस्तकालय में किताबें रखने के लिए रैक तो हैं, लेकिन सभी खाली पड़ी हैं। भले ही उनकी 115वीं जयंती पर गोष्ठियां होंगी, श्रद्धांजलि दी जाएगी, मगर उनके अपने ही गांव के पुस्तकालय में उनकी तस्वीर पर जमा धूल साफ करने वाला शायद ही कोई होगा।

परिवार के लोगों के अनुसार बच्चन प्रयागराज में रहते हुए खुद दो बार ही पैतृक गांव आए थे। उनकी आत्मकथा क्या भूलूं क्या याद करूं, में पुरखों की माटी के प्रति लगाव और प्रेम साफ झलकता है। अपनी किताब में पहले विश्वनाथगंज और फिर दांदूपुर स्टेशन पर ट्रेन से उतरकर पैदल गांव पहुंचने के बाद जिस नीम के चौरा और कुएं का जिक्र उन्होंने किया है, वह आज भी हैं। बाबूजी से मिली यादों को ताजा करने और पुरखों की माटी से नाता जोड़ने के लिए बहू जया बच्चन पांच मार्च 2006 को बाबूपट्टी जरूर आईं, लेकिन उनका कार्यक्रम पूरी तरह से सियासी बनकर रह गया था।

बहू जया बच्चन ने डॉ. हरिवंश राय बच्चन की याद में बने पुस्तकालय का पांच मार्च 2006 को लोकार्पण किया था। नीम के चौरा पर शीश नवाते हुए गांव में कॉलेज बनवाने का वादा भी किया था, मगर वह अब तक पूरा नहीं हो सका। ध्यान देने वाली बात यह है कि समय बीतने के साथ पुस्तकालय का अस्तित्व मिटता जा रहा है। उनकी स्मृतियां सहेजना तो दूर गांव के लोग उनकी शख्सियत भूलते जा रहे हैं। तभी तो पुस्तकालय के भवन में कोटेदार ने राशन का भंडार बना दिया है। बरसात के दौरान उसी भवन में लोग छोटे मोटे आयोजन भी कर लेते हैं।

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बच्चनजी के नाम पर कोई संपत्ति नहीं
बाबूपट्टी हरिवंश राय बच्चन का गांव जरूर है, लेकिन यहां उनकी कोई पैतृक संपत्ति नहीं है। ग्रामीणों के अनुसार उनके पैतृक निवास स्थान पर पुस्तकालय भवन बन गया है। इसके अलावा उनके नाम कोई जमीन दर्ज नहीं है।

कभी गाई जाती थी मधुशाला
गांव के केदारनाथ यादव का कहना है कि उनके बाबा बताते थे कि पहले गांव के लोग कुएं पर बैठकर अंताक्षरी में बच्चन जी की मधुशाला गाते थे। अब तो बच्चन जी का परिवार ही गांव व अपने परिवार के लोगों को भूलता जा रहा है।

जया बहू ने वादे तो किए, लेकिन पूरे नहीं हुए
बाबूपट्टी के रहने वाले विजय श्रीवास्तव का कहना है कि पुस्तकालय का लोकार्पण करने आईं जया बच्चन लोगों से वादे तो करके गईं थी कि वह यहां बहू ऐश्वर्या राय को लेकर आएंगी। गांव व समाज के लिए कुछ जरूर करेंगी। फिर रंज जताते हुए कहा कि बड़े लोगों की बड़ी बातें होती हैं। यहां से जाते ही सब भूल जाते हैं।

दूसरे दिन ही उठा ले गए थे पुस्तकें 
पुस्तकालय भवन में राशन रखकर वितरित करने वाले कोटेदार रमाकांत का कहना है कि लोकार्पण के दूसरे दिन ही पूर्व सांसद सीएन सिंह के कुछ समर्थक आए और पुस्तकें उठा ले गए थे। भवन खाली पड़ा था, इसलिए राशन का गोदाम बना लिया है।

पुस्तकालय भवन जर्जर हो गया था। जिसकी मरम्मत कराई गई। नियम के विपरीत कोटेदार ने पुस्तकालय भवन को राशन का गोदाम बना रखा है। – विकास यादव, प्रधान बाबूपट्टी

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जीवन में वह था एक कुसुम, थे उस पर नित्य निछावर तुम, वह सूख गया तो सूख गया, मधुवन की छाती को देखो, सूखी कितनी इसकी कलियां, मुर्झाईं कितनी वल्लरियां, जो मुर्झाईं फिर कहां खिलीं, पर बोलों सूखे फूलों पर कब मधुवन शोर मचाता है। जो बीत गई सो बात गई। हिंदी साहित्य के अद्भुत चितेरे हरिवंश राय बच्चन की ये पंक्तियां उनके अपने ही प्रतापगढ़ स्थित गांव बाबूपट्टी पर सटीक बैठती हैं। अब तो वह अपनों के बीच बेगाने दिखे। गांव में उनकी 115 वीं जयंती पर कोई शोर या तैयारी नहीं दिखी। मगर पूछने पर यह जरूर बताया कि बच्चन जी तो हमारे ही गांव के ही थे। यहां की नई पीढ़ी ने बच्चन की रचनाओं को भले ही न पढ़ा हो मगर उनका नाम जरूर सुना है।



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