जिसने जीता पश्चिम …वही सिकंदर : 53 सीटों पर भाजपा का था कब्जा, प्रदर्शन बरकरार रखना बड़ी चुनौती

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अमित मुद्गल, अमर उजाला, लखनऊ
Published by: पंकज श्रीवास्‍तव
Updated Tue, 25 Jan 2022 10:35 AM IST

सार

पहले चरण का मतदान दस फरवरी को है। कुल 11 जिलों शामली, मुजफ्फरनगर, बागपत, मेरठ, गाजियाबाद, हापुड़, नोएडा, बुलंदशहर, अलीगढ़, मथुरा, और आगरा की 58 सीटों पर मतदान होगा।

भाजपा, कांग्रेस और सपा के चुनाव चिन्ह

भाजपा, कांग्रेस और सपा के चुनाव चिन्ह
– फोटो : अमर उजाला

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विस्तार

चुनावी रण का आगाज पश्चिमी उप्र के 11 जिलों से हो रहा है। सियासतदां इस बात को भली भांति जानते हैं कि पश्चिम से जिसकी भी बयार चलेगी, उसका असर दूर तक जाएगा और उसी का बेड़ा पार हो जाएगा। यही कारण है कि सभी ने अपने-अपने तरकश के तीरों को और पैना कर पश्चिमी यूपी में छोड़ दिया है। पहले चरण का मतदान दस फरवरी को है। कुल 11 जिलों शामली, मुजफ्फरनगर, बागपत, मेरठ, गाजियाबाद, हापुड़, नोएडा, बुलंदशहर, अलीगढ़, मथुरा, और आगरा की 58 सीटों पर मतदान होगा। इन सीटों पर हमेशा से ही मुकाबला कड़ा रहा है। पिछले चुनाव की बात करें तो भाजपा की प्रचंड लहर यहां चली और बस पांच सीटें ऐसी रह गई थी जिन पर भाजपा के विजयी रथ को रोक लिया गया था।  कैराना में सपा के नाहिद हसन, मेरठ शहर सीट पर सपा के रफीक अंसारी, छपरौली पर रालोद से सहेंद्र रमाला, धौलाना पर बसपा के असलम चौधरी तथा मांट पर बसपा के श्यामसुंदर शर्मा चुनाव जीते थे। इस बार इन सीटों पर जहां भाजपा जीत के लिए पूरी ताकत लगा रही है तो अन्य सीटों पर सपा रालोद गठबंधन समेत अन्य दूसरे दलों ने भी पूरी ताकत झोंक रखी है।

कैराना की प्रयोगशाला

पिछले चुनाव में सबसे पहले कैराना के पूर्व सांसद हुकुम सिंह ने पलायन का मुद्दा उठाया था। यह प्रयोग इस कदर रंग लाया कि भाजपा सत्ता में आ गई। हालांकि, कैराना में इस फॉर्मूले का असर उल्टा हुआ और यहां सपा के नाहिद हसन चुनाव जीत गए वह भी तब जबकि भाजपा ने हुकुम सिंह की पुत्री मृगांका सिंह को चुनावी रण में उतारा था। इस बार भी दोनाें फिर से आमने-सामने हैं। भाजपा इस बार इसे प्रतिष्ठा की लड़ाई मानकर चल रही है। गृहमंत्री अमित शाह और सीएम योगी आदित्यनाथ खुद पलायन वाले परिवारों से जाकर मिल चुके हैं और कह चुके हैं कि अब वे दिन नहीं रहे। इसका कितना असर हुआ, वह भी यह चुनाव तय करेगा।


किसानों का संदेश अगले चरण पर 

कृषि कानूनों का सबसे ज्यादा असर पश्चिमी उप्र में ही नजर आया था। पश्चिमी उप्र के किसान न केवल धरनों में शामिल हुए बल्कि सपा और रालोद गठजोड़ का जनक भी यही आंदोलन बना। अब इन जिलों में किसानों में भी धड़े बने हैं। दोनों अपनी-अपनी बात कह रहे हैं। इस चरण में किसान मजबूती से किसके साथ खड़ा हुआ, उसका संदेश अन्य सीटों तक तेजी से जाएगा। इसे सभी दल गंभीरता से समझ रहे हैं और अपनी तैयारियों को इसी तरह से आकार दे रहे हैं।

 

करना होगा डैमेज कंट्रोल

इस चुनाव में सभी को डैमेज कंट्रोल करने की बड़ी चुनौती है। भाजपा के सामने किसान आंदोलन की नाराजगी को दूर करने की चुनौती है। हालांकि, भाजपा कानून-व्यवस्था के मुद्दे को बड़े स्तर पर सामने रख रही है। रालोद-सपा गठबंधन के सामने टिकटों के बंटवारे के बाद कई सीटों पर पैदा हुई रार को खत्म करने की चुनौती है। बसपा के सामने फिर से अपने अस्तित्व को खड़ा करने की चुनौती है। इस बार बसपा अकेले मैदान में जबकि सपा गठबंधन में हैं। इसलिए बसपा को अतिरिक्त मेहनत करनी होगी।

 

विकास और सामाजिक सुरक्षा जैसे मुद्दों पर हो रही बात

चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ के राजनीति विज्ञान के प्रो. पवन शर्मा कहते हैं कि इस चुनाव में मुख्य रूप से दो बिंदु महत्वपूर्ण हैं। पहले स्थान पर किसानों का मुद्दा है और किसानों ने कृषि कानून को लेकर लंबा आंदोलन भी किया लेकिन सही बात यह है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश गन्ना बेल्ट है। यहां तो कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग पहले ही हो रही है। यह बात अवश्य है कि उस आंदोलन के कुछ अगुवा पश्चिम उत्तर प्रदेश के थे लेकिन यह भी सही है कि यह अब सामूहिक रूप से बड़ा मुद्दा नहीं है। इस चुनाव में विकास और सामाजिक सुरक्षा बड़ा मुद्दा बन कर सामने आ रहा है। 

 

बड़े मुद्दों पर सबका ध्यान

मेरठ कॉलेज मेरठ के एसोसिएट प्रोफेसर पूरन सिंह उज्ज्वल कहते हैं कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव में फर्क यह है कि इनका मिजाज अलग अलग होता है। विधानसभा चुनाव में स्थानीय मुद्दे हावी होते हैं। निश्चित रूप से पश्चिम उत्तर प्रदेश के चुनाव में किसान आंदोलन की आंच है लेकिन अब इसकी तपिश बहुत कम हो गई है। बड़ा मुद्दा कानून व्यवस्था का है। किसानों का भी मानना है कि कानून व्यवस्था सबसे अहम है इसलिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसी के लिए भी यह चुनाव आसान नहीं है।

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