राजनीतिक पंडितों को लगता है कि योगी आदित्यनाथ की यह छवि एक मुख्यमंत्री पद के लिए तो ठीक हो सकती है, लेकिन भारत जैसे विशाल देश में उनकी यह छवि उनकी स्वीकार्यता में आड़े आ सकती है। वे जिस तरह संकेतों में एक वर्ग विशेष पर टिप्पणी करते हैं, और उनके कुछ आदेश भी एक वर्ग विशेष के खिलाफ दिखते हैं, वे भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में उन्हें सर्वस्वीकार्य होने में बाधा पहुंचाती हैं…
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद भाजपा में दूसरे नंबर का लोकप्रिय नेता कौन है, इस पर विवाद हो सकता है। कुछ लोगों की पसंद अमित शाह तो कुछ लोगों की पसंद नितिन गडकरी और राजनाथ सिंह भी हो सकते हैं। लेकिन यूपी विधानसभा चुनाव में प्रचंड जीत के साथ ही योगी प्रशंसक उन्हें प्रधानमंत्री पद का अगला उम्मीदवार घोषित करने लगे हैं। भाजपा ने इस पर औपचारिक प्रतिक्रिया भले ही न दी हो, सोशल मीडिया पर अभी से योगी आदित्यनाथ को अगला प्रधानमंत्री उम्मीदवार बताकर कैंपेन चलाए जाने लगे हैं। लेकिन क्या योगी आदित्यनाथ प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के लिए तैयार हैं और क्या आरएसएस उन्हें अगले पीएम मैटेरियल के रूप मे ही तैयार कर रहा है?
योगी आदित्यनाथ की कट्टर हिंदूवादी छवि उनकी सबसे बड़ी ताकत है। यह छवि आरएसएस के एजेंडे से भी मेल खाती है। इसी छवि के कारण उन्हें 2017 में यूपी के मुख्यमंत्री पद के लिए संघ का साथ मिला था। शायद उनकी इसी छवि का परिणाम है कि विभिन्न राज्यों के चुनावों में प्रधानमंत्री मोदी के बाद योगी आदित्यनाथ की सभाओं की मांग ही सबसे ज्यादा की जाती है। उनकी यह लोकप्रियता उन्हें भाजपा का निर्विवाद नेता बनाती है। लोकप्रिय छवि के मामले में वे अपने कई वरिष्ठ नेताओं से काफी आगे निकल चुके हैं। कुछ लोगों को लगता है कि उनकी यही ताकत उन्हें मोदी के बाद अगला प्रधानमंत्री बनाने में मदद कर सकती है।
साबित की अपनी प्रशासनिक क्षमता
पिछली बार मुख्यमंत्री बनने के समय उनकी इस बात के लिए आलोचना की जा रही थी कि उन्हें एक धार्मिक मठ चलाने से ज्यादा कोई प्रशासनिक अनूभव नहीं है। उनकी क्षमताओं को संदेह की दृष्टि से आंका जा रहा था। लेकिन पिछले पांच साल में उन्होंने जिस शानदार तरीके से उत्तर प्रदेश का शासन चलाया है, उससे ये तमाम आशंकाएं निर्मूल साबित हुई हैं। अपराधीकरण पर लगाम लगाने के साथ ही उन्होंने लगातार विकास परियोजनाओं को आगे बढ़ाकर अपनी विकासवादी सोच को साबित किया है।
कोरोना काल के दौरान संक्रमित होने के बाद भी जिस तरह से वे दिन-रात जनता की सेवा में जुटे रहे, लोगों को राशन और आर्थिक सहायता पहुंचाई और अस्पताल-अस्पताल पहुंचकर स्वास्थ्य सुविधाओं का जायजा लेते रहे, उन्होंने अपनी छवि लगातार कठिन मेहनत करने वाले नेता के तौर पर बनाई। उनकी यह छवि उन्हें बड़े नेता के रूप में स्थापित करने में मदद कर सकती है।
कमजोरियों से पार पाना होगा
लेकिन राजनीतिक पंडितों को लगता है कि योगी आदित्यनाथ की यह छवि एक मुख्यमंत्री पद के लिए तो ठीक हो सकती है, लेकिन भारत जैसे विशाल देश में उनकी यह छवि उनकी स्वीकार्यता में आड़े आ सकती है। वे जिस तरह संकेतों में एक वर्ग विशेष पर टिप्पणी करते हैं, और उनके कुछ आदेश भी एक वर्ग विशेष के खिलाफ दिखते हैं, वे भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में उन्हें सर्वस्वीकार्य होने में बाधा पहुंचाती हैं। इस मामले में प्रधानमंत्री को देखा जा सकता है, जो गुजरात के मुख्यमंत्री से लेकर अब तक हमेशा पूरे गुजरात और पूरे देश की 135 करोड़ जनता की बात कर सबके साथ खड़े होते दिखते हैं। योगी बात भले ही यूपी की 22 करोड़ जनता की करें, लेकिन वे उनके साथ खड़े होते नहीं दिखते हैं।
पार्टी के अंदर उनके लिए कौन करेगा बैटिंग
प्रधानमंत्री जैसे उच्च पद के लिए पार्टी के दूसरे नेताओं के बीच उनकी अपनी स्वीकार्यता बेहद जरूरी है। इसके बिना वे अपने पक्ष में बड़ी लामबंदी नहीं कर सकते। विधानसभा चुनावों के मंच पर पीएम मोदी भी उन्हें उपयोगी बताते रहे, अमित शाह और नितिन ग़डकरी उन्हें जिताऊ बताते रहे, रक्षामंत्री राजनाथ सिंह उन्हें अपने से बेहतर प्रशासक बताते रहे, लेकिन जहां प्रधानमंत्री पद की बात आएगी, इनमें से कितने नेता उनका समर्थन करेंगे, कहा नहीं जा सकता। उनके लिए जरूरी होगा कि वे पार्टी के अंदर अपना बड़ा समर्थक वर्ग तैयार करें जो उनकी दावेदारी के समय पार्टी के अंदर उनके पक्ष में लामबंदी कर सकें।
हालांकि, चुनावी जीत के बाद तुरंत दिल्ली दौरा करते हुए उन्होंने जिस तरह धर्मेंद्र प्रधान और अनुराग ठाकुर जैसे नेताओं से मुलाकात की थी। इसे उनकी भविष्य की राजनीति के लिहाज से की जा रही फील्डिंग के तौर पर ही देखा जा रहा है। शायद आने वाले समय में वे अपनी इस छवि को और मजबूत कर सकें।
संघ के साथ पर भी सवाल
यह सर्वविदित है कि 2017 में मोदी की नापसंदगी के बाद भी संघ ने योगी का भरपूर समर्थन किया था और उनके समर्थन के बाद ही वे मुख्यमंत्री पद की कुर्सी तक पहुंच सके थे। लेकिन बाद में कुछ मुद्दों पर उनके संघ से भी मतभेद होते दिखाई पड़े। केंद्र सरकार ने जिस तरह एके शर्मा को मोदी कैबिनेट में शामिल कराने के लिए केंद्र से उन्हें भेजा था, योगी आदित्यनाथ किसी भी कीमत पर उन्हें अपने साथ लेने को तैयार न हुए। यहां तक कि संघ नेताओं के दबाव के बाद भी योगी आदित्यनाथ ने केंद्र के ‘मोहरे’ को अपनी कैबिनेट में जगह नहीं दिया। माना जाता है कि उनके इस रवैये से संघ के कुछ नेता भी योगी से खुश नहीं हैं। यदि इसी तरह वे अपने कट्टर समर्थकों को भी साध पाने में असफल रहते हें तो भविष्य में उनकी राह मुश्किल हो सकती है।
विपक्षी नेताओं से तालमेल
भाजपा में अटल बिहारी वाजयेपी को नरम विचारधारा का नेता माना जाता था, तो उन्हीं के सहयोगी लालकृष्ण आडवाणी को अपेक्षाकृत कट्टर और गरम विचारधारा का नेता माना जाता था। इतिहास है कि समय आने पर अटल बिहारी वाजयेपी के नाम पर दूसरे दलों के नेताओं के बीच भी सहमति बनती दिखी, जबकि आडवाणी के नाम पर सहयोगी दल बिचकते रहे। यदि इस तरह की कोई परिस्थिति दोबारा बनती है तो योगी आदित्यनाथ की कट्टर छवि ही उनके मार्ग में बाधा बन सकती है।
जबकि इस पैमाने पर भाजपा के ही नितिन गडकरी और राजनाथ सिंह कहीं बेहतर साबित हो सकते हैं जिनके दूसरे दलों के नेताओं से बेहद अच्छे संबंध हैं। जरूरी समय में ये संबंध बेहद काम के साबित हो सकते हैं। जबकि योगी आदित्यनाथ के पक्ष में खड़े होने वाले सहयोगी-विपक्षी दल के नेताओं में शायद ही कुछ नाम गिनाए जा सकें।
समय देगा सवालों के जवाब
भाजपा के केंद्रीय इकाई के एक वरिष्ठ नेता ने अमर उजाला को बताया कि पार्टी ने समय-समय पर ऐसी कई गंभीर चुनौतियों का सामना किया है। भाजपा ने ऐसा भी दौर देखा है जहां कोई उसके साथ खड़ा होने से भी कतराता था, लेकिन समय के साथ उसके सहयोगी दलों की संख्या लगातार बढ़ती गई है। पीएम नरेंद्र मोदी के साथ-साथ अटल-आडवाणी तक को अपनी स्वीकार्यता के लिए संघर्ष करना पड़ा, लेकिन समय के साथ दूसरे लोग उनके साथ खुलकर खड़े हुए और भाजपा ने उन चुनौतियों पर जीत हासिल की। समय ने उन्हें इस तरह की चुनौतियों से जूझना सिखा दिया है।
उन्होंने कहा कि अभी तो 2024 के आम चुनाव के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही पार्टी की तरफ से पीएम उम्मीदवार हो सकते हैं, लेकिन भविष्य में पार्टी जिस नेता पर भी दांव लगाएगी, लोग उनके साथ आएंगे और राष्ट्रवादी और विकासवादी विचारधारा की जीत होगी।
विस्तार
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद भाजपा में दूसरे नंबर का लोकप्रिय नेता कौन है, इस पर विवाद हो सकता है। कुछ लोगों की पसंद अमित शाह तो कुछ लोगों की पसंद नितिन गडकरी और राजनाथ सिंह भी हो सकते हैं। लेकिन यूपी विधानसभा चुनाव में प्रचंड जीत के साथ ही योगी प्रशंसक उन्हें प्रधानमंत्री पद का अगला उम्मीदवार घोषित करने लगे हैं। भाजपा ने इस पर औपचारिक प्रतिक्रिया भले ही न दी हो, सोशल मीडिया पर अभी से योगी आदित्यनाथ को अगला प्रधानमंत्री उम्मीदवार बताकर कैंपेन चलाए जाने लगे हैं। लेकिन क्या योगी आदित्यनाथ प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के लिए तैयार हैं और क्या आरएसएस उन्हें अगले पीएम मैटेरियल के रूप मे ही तैयार कर रहा है?
योगी आदित्यनाथ की कट्टर हिंदूवादी छवि उनकी सबसे बड़ी ताकत है। यह छवि आरएसएस के एजेंडे से भी मेल खाती है। इसी छवि के कारण उन्हें 2017 में यूपी के मुख्यमंत्री पद के लिए संघ का साथ मिला था। शायद उनकी इसी छवि का परिणाम है कि विभिन्न राज्यों के चुनावों में प्रधानमंत्री मोदी के बाद योगी आदित्यनाथ की सभाओं की मांग ही सबसे ज्यादा की जाती है। उनकी यह लोकप्रियता उन्हें भाजपा का निर्विवाद नेता बनाती है। लोकप्रिय छवि के मामले में वे अपने कई वरिष्ठ नेताओं से काफी आगे निकल चुके हैं। कुछ लोगों को लगता है कि उनकी यही ताकत उन्हें मोदी के बाद अगला प्रधानमंत्री बनाने में मदद कर सकती है।
साबित की अपनी प्रशासनिक क्षमता
पिछली बार मुख्यमंत्री बनने के समय उनकी इस बात के लिए आलोचना की जा रही थी कि उन्हें एक धार्मिक मठ चलाने से ज्यादा कोई प्रशासनिक अनूभव नहीं है। उनकी क्षमताओं को संदेह की दृष्टि से आंका जा रहा था। लेकिन पिछले पांच साल में उन्होंने जिस शानदार तरीके से उत्तर प्रदेश का शासन चलाया है, उससे ये तमाम आशंकाएं निर्मूल साबित हुई हैं। अपराधीकरण पर लगाम लगाने के साथ ही उन्होंने लगातार विकास परियोजनाओं को आगे बढ़ाकर अपनी विकासवादी सोच को साबित किया है।
कोरोना काल के दौरान संक्रमित होने के बाद भी जिस तरह से वे दिन-रात जनता की सेवा में जुटे रहे, लोगों को राशन और आर्थिक सहायता पहुंचाई और अस्पताल-अस्पताल पहुंचकर स्वास्थ्य सुविधाओं का जायजा लेते रहे, उन्होंने अपनी छवि लगातार कठिन मेहनत करने वाले नेता के तौर पर बनाई। उनकी यह छवि उन्हें बड़े नेता के रूप में स्थापित करने में मदद कर सकती है।
कमजोरियों से पार पाना होगा
लेकिन राजनीतिक पंडितों को लगता है कि योगी आदित्यनाथ की यह छवि एक मुख्यमंत्री पद के लिए तो ठीक हो सकती है, लेकिन भारत जैसे विशाल देश में उनकी यह छवि उनकी स्वीकार्यता में आड़े आ सकती है। वे जिस तरह संकेतों में एक वर्ग विशेष पर टिप्पणी करते हैं, और उनके कुछ आदेश भी एक वर्ग विशेष के खिलाफ दिखते हैं, वे भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में उन्हें सर्वस्वीकार्य होने में बाधा पहुंचाती हैं। इस मामले में प्रधानमंत्री को देखा जा सकता है, जो गुजरात के मुख्यमंत्री से लेकर अब तक हमेशा पूरे गुजरात और पूरे देश की 135 करोड़ जनता की बात कर सबके साथ खड़े होते दिखते हैं। योगी बात भले ही यूपी की 22 करोड़ जनता की करें, लेकिन वे उनके साथ खड़े होते नहीं दिखते हैं।
पार्टी के अंदर उनके लिए कौन करेगा बैटिंग
प्रधानमंत्री जैसे उच्च पद के लिए पार्टी के दूसरे नेताओं के बीच उनकी अपनी स्वीकार्यता बेहद जरूरी है। इसके बिना वे अपने पक्ष में बड़ी लामबंदी नहीं कर सकते। विधानसभा चुनावों के मंच पर पीएम मोदी भी उन्हें उपयोगी बताते रहे, अमित शाह और नितिन ग़डकरी उन्हें जिताऊ बताते रहे, रक्षामंत्री राजनाथ सिंह उन्हें अपने से बेहतर प्रशासक बताते रहे, लेकिन जहां प्रधानमंत्री पद की बात आएगी, इनमें से कितने नेता उनका समर्थन करेंगे, कहा नहीं जा सकता। उनके लिए जरूरी होगा कि वे पार्टी के अंदर अपना बड़ा समर्थक वर्ग तैयार करें जो उनकी दावेदारी के समय पार्टी के अंदर उनके पक्ष में लामबंदी कर सकें।
हालांकि, चुनावी जीत के बाद तुरंत दिल्ली दौरा करते हुए उन्होंने जिस तरह धर्मेंद्र प्रधान और अनुराग ठाकुर जैसे नेताओं से मुलाकात की थी। इसे उनकी भविष्य की राजनीति के लिहाज से की जा रही फील्डिंग के तौर पर ही देखा जा रहा है। शायद आने वाले समय में वे अपनी इस छवि को और मजबूत कर सकें।
संघ के साथ पर भी सवाल
यह सर्वविदित है कि 2017 में मोदी की नापसंदगी के बाद भी संघ ने योगी का भरपूर समर्थन किया था और उनके समर्थन के बाद ही वे मुख्यमंत्री पद की कुर्सी तक पहुंच सके थे। लेकिन बाद में कुछ मुद्दों पर उनके संघ से भी मतभेद होते दिखाई पड़े। केंद्र सरकार ने जिस तरह एके शर्मा को मोदी कैबिनेट में शामिल कराने के लिए केंद्र से उन्हें भेजा था, योगी आदित्यनाथ किसी भी कीमत पर उन्हें अपने साथ लेने को तैयार न हुए। यहां तक कि संघ नेताओं के दबाव के बाद भी योगी आदित्यनाथ ने केंद्र के ‘मोहरे’ को अपनी कैबिनेट में जगह नहीं दिया। माना जाता है कि उनके इस रवैये से संघ के कुछ नेता भी योगी से खुश नहीं हैं। यदि इसी तरह वे अपने कट्टर समर्थकों को भी साध पाने में असफल रहते हें तो भविष्य में उनकी राह मुश्किल हो सकती है।
विपक्षी नेताओं से तालमेल
भाजपा में अटल बिहारी वाजयेपी को नरम विचारधारा का नेता माना जाता था, तो उन्हीं के सहयोगी लालकृष्ण आडवाणी को अपेक्षाकृत कट्टर और गरम विचारधारा का नेता माना जाता था। इतिहास है कि समय आने पर अटल बिहारी वाजयेपी के नाम पर दूसरे दलों के नेताओं के बीच भी सहमति बनती दिखी, जबकि आडवाणी के नाम पर सहयोगी दल बिचकते रहे। यदि इस तरह की कोई परिस्थिति दोबारा बनती है तो योगी आदित्यनाथ की कट्टर छवि ही उनके मार्ग में बाधा बन सकती है।
जबकि इस पैमाने पर भाजपा के ही नितिन गडकरी और राजनाथ सिंह कहीं बेहतर साबित हो सकते हैं जिनके दूसरे दलों के नेताओं से बेहद अच्छे संबंध हैं। जरूरी समय में ये संबंध बेहद काम के साबित हो सकते हैं। जबकि योगी आदित्यनाथ के पक्ष में खड़े होने वाले सहयोगी-विपक्षी दल के नेताओं में शायद ही कुछ नाम गिनाए जा सकें।
समय देगा सवालों के जवाब
भाजपा के केंद्रीय इकाई के एक वरिष्ठ नेता ने अमर उजाला को बताया कि पार्टी ने समय-समय पर ऐसी कई गंभीर चुनौतियों का सामना किया है। भाजपा ने ऐसा भी दौर देखा है जहां कोई उसके साथ खड़ा होने से भी कतराता था, लेकिन समय के साथ उसके सहयोगी दलों की संख्या लगातार बढ़ती गई है। पीएम नरेंद्र मोदी के साथ-साथ अटल-आडवाणी तक को अपनी स्वीकार्यता के लिए संघर्ष करना पड़ा, लेकिन समय के साथ दूसरे लोग उनके साथ खुलकर खड़े हुए और भाजपा ने उन चुनौतियों पर जीत हासिल की। समय ने उन्हें इस तरह की चुनौतियों से जूझना सिखा दिया है।
उन्होंने कहा कि अभी तो 2024 के आम चुनाव के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही पार्टी की तरफ से पीएम उम्मीदवार हो सकते हैं, लेकिन भविष्य में पार्टी जिस नेता पर भी दांव लगाएगी, लोग उनके साथ आएंगे और राष्ट्रवादी और विकासवादी विचारधारा की जीत होगी।