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लगभग 15 दिन मंथन। मंथन के निष्कर्षों पर शपथ ग्रहण से दो घंटे पहले तक परदा। तमाम मिथकों को तोड़ते और तीन दशक बाद लगातार दूसरी बार सरकार बनाने और आजादी के बाद पहली बार बतौर मुख्यमंत्री फिर सत्ता में वापसी जैसे कई कमाल कर दिखाने वाले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के मंत्रियों के चयन पर लखनऊ से दिल्ली तक कई बार बैठकें हुईं। सूची बनी और छटनी हुई। मंत्रिमंडल को लेकर कई चर्चा भी चलीं, लेकिन आखिर में कई चौंकाने वाले नामों के साथ योगी सरकार-2 के मंत्रिमंडल ने शपथ ली। तमाम पुराने और पार्टी के असरदार डॉ. दिनेश शर्मा जैसे चेहरे बाहर हो गए। सवाल यह है कि मंत्रिमंडल को अंतिम रूप देने में किसकी चली? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की या सरकार की? लखनऊ में लंबे समय तक महत्वपूर्ण भूमिका रहे संघ के एक वरिष्ठ प्रचारक इसका जवाब कुछ यूं देते है, संघ की भी चली, भाजपा संगठन की भी चली, लेकिन सबसे ज्यादा 24 की चली। वरिष्ठ प्रचारक की बात सही लग रही है सिर्फ 2024 की जरूरतों की ही चली।
इस जरूरत को जातियों ने पूरी की तो उस जाति से भविष्य की जरूरतों को पूरा करने वाले किरदार तलाशे गए। कोई संघर्ष क्षमता से इस जरूरत को पूरी करता दिखा, कोई व्यवहार से संगठन की अपेक्षाओं को पूरी करने की उम्मीद जगाते दिखा तो उसके नाम पर मुहर लग गई। बिना यह सोचे कि उसकी पीठ पर किसी बड़े का हाथ है या नहीं।
इसीलिए मंत्रिमंडल में बड़ी कुर्सियों पर बैठे कुछ वे चेहरे भी बाहर हो गए जिनके पीछे संघ के बड़े पदाधिकारियों की ताकत मानी जाती थी या थे जिनके बारे में भाजपा के बड़े नेता के नजदीकी होने की चर्चा थी। इससे पता चलता कि संघ या भाजपा हाईकमान अब सिर्फ इसलिए किसी निर्णय का समर्थन नहीं करेगा कि उसके साथ किसी अपने की सहानुभूति है। निर्णय अब भविष्य की चुनीतियों व जरूरतों को ध्यान में रखकर होंगे।
ये है प्रमाण
नए मंत्रिमंडल के ज्यादातर चेहरों को देखकर यह अंदाज लगाना मुश्किल है कि उस पर हाईकमान की कृपा रही है या सिर्फ संघ के किसी बड़े व्यक्ति से जुड़ाव का लाभ मिला है। शायद यही वह वजह है कि पीएम मोदी के संसदीय क्षेत्र काशी से दूसरी बार निर्वाचित होने के बावजूद नीलकंठ तिवारी को बाहर जाना पड़ा और दूसरे दल से आए दयालु मिश्र को काम करने का मौका दिया गया।
दरअसल, नीलकंठ भी संघ के वरिष्ठ पदाधिकारी के कृपापत्र माने जाते रहे हैं और यह भी कहा जाता था कि वे भाजपा हाईकमान के भी प्रिय हैं। पर, चुनाव के दौरान जिस तरह की स्थिति बनी शायद उसी को ध्यान में रखते हुए नीलकंठ को बाहर का फैसला किया गया। शायद संघ व भाजपा नेतृत्व ने इस फैसले से यह भी बता दिया है कि जन अपेक्षाओं पर खरा न उतरने वालों के साथ पार्टी की कोई सहानुभूति नहीं है।
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