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संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में दावा किया गया है कि केवल एक साल के अंदर भारत दुनिया का सबसे ज्यादा आबादी वाला देश बन जाएगा। इससे लोगों को भोजन, आवास और रोजगार जैसी आधारभूत सेवाएं उपलब्ध कराने में कठिनाई सामने आ सकती है। इस स्पष्ट चेतावनी के बाद भी इस गंभीर मुद्दे पर राजनीतिक दलों में एक राय नहीं है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के इस बयान का विरोध शुरू हो गया है कि जनसंख्या नियंत्रण किया जाना चाहिए और यह ध्यान रखा जाना कि किसी वर्ग विशेष की जनसंख्या दूसरे वर्गों की जनसंख्या से ज्यादा न बढ़े क्योंकि इससे सामाजिक असंतुलन पैदा होता है। समाजवादी पार्टी और एआईएमआईएम ने मुख्यमंत्री के बयान को अल्पसंख्यकों के विरुद्ध बताया है। क्या भारत में जनसंख्या नियंत्रण कानून की आवश्यकता है और क्या सभी राजनीतिक दल अपने वैचारिक मतभेदों को अलग रखकर इस समस्या का कोई समाधान खोजने के लिए तैयार हैं?
भाजपा के विभिन्न नेता समय-समय पर जनसंख्या नियंत्रण कानून लाने की वकालत करते रहे हैं, लेकिन जब यही मामला सर्वोच्च न्यायालय के सामने आया, तब स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा कि परिवार नियोजन के कार्यक्रम चलते रहेंगे, लेकिन सरकार जनसंख्या नियंत्रण के लिए कोई कानून लाने के पक्ष में नहीं है।
चिंता का कारण क्या
देश की आजादी के बाद 1951 में हुई पहली जनगणना में मुस्लिमों की आबादी केवल 9.8 फीसदी थी, जो अब बढ़कर 14.23 फीसदी हो गई है। हिंदुओं की आबादी 1951 में 84.1 फीसदी से घटकर अब 79.80 रह गई है। 2011 की जनगणना में हिंदुओं की आबादी 79.80 फीसदी तो मुसलमानों की आबादी 14.23 फीसदी है। इसी आंकड़े के आधार पर कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग समुदायों की जनसंख्या में वृद्धि दर अलग-अलग है। इससे समाज के एक वर्ग के लोग दूसरे के प्रति आशंकित हो जाते हैं।
इन राज्यों में हिंदू हुए अल्पसंख्यक
आंकड़ों के मुताबिक, देश के कई राज्यों में हिंदू आबादी अल्पसंख्यक हो चुकी है। इनमें मिजोरम (2.75 %), लक्षद्वीप (2.77%), नागालैंड (8.75%), मेघालय (11.53%), और अरुणाचल प्रदेश (29.04%) और मणिपुर (41.39%) हैं। जम्मू-कश्मीर में हिंदुओं की आबादी केवल 28.44 फीसदी तो कई अन्य राज्यों में इनकी संख्या में गिरावट दर्ज की जा रही है। कुछ लोगों का मानना है कि जब एक वर्ग विशेष की आबादी बढ़ती है तो इससे कई तरह की समस्याएं जन्म लेती हैं। झारखंड में कुछ मुस्लिम बहुल इलाकों में स्कूलों की छुट्टियां रविवार की बजाय शुक्रवार को कर दी गई थीं। इस प्रकार के बदलावों से समाज के दूसरे वर्गों के मन में दूसरे समुदाय को लेकर संदेह पैदा होता है।
चिंता सही नहीं
कई विशेषज्ञ मानते हैं कि जनसंख्या को लेकर यह चिंता सही नहीं है। सच्चाई यह है कि हिंदुओं के साथ-साथ मुस्लिम समुदाय की जनसंख्या वृद्धि दर में भी कमी आई है। हिंदुओं की जनसंख्या वृद्धि दर (फर्टिलिटी रेशियो के आधार पर) पिछले दस सालों में (2001 और 2011 की तुलना) 3.1 से घटकर 2.1 रह गई है, तो मुसलमानों में भी यह 4.1 से घटकर 2.7 रह गई है। हालांकि 2.1 की जनसंख्या वृद्धि को जनसंख्या बनाए रखने के लिए आवश्यक माना जाता है। लेकिन आंकड़ों की एक सच्चाई यह अवश्य है कि इसमें मुस्लिमों में जनसंख्या वृद्धि दर अभी भी बाकी समुदायों से सबसे ज्यादा है।
कड़े कानून की जरुरत नहीं
हालांकि, विश्लेषकों का मानना है कि मुस्लिम समुदाय में अशिक्षा और धार्मिक कट्टरता बाकी समुदायों से ज्यादा है। यही कारण है कि मुसलमानों में प्रजनन दर ज्यादा है, लेकिन जैसे-जैसे उनमें शिक्षा दर बढ़ रही है, महिलाएं कम बच्चे पैदा करने को प्राथमिकता दे रही हैं। इसलिए प्रजनन दर कम करने के लिए कड़े कानून की बजाय महिलाओं की शिक्षा ज्यादा कारगर और आसान उपाय साबित हो सकता है। समाज में इसका विरोध भी नहीं होगा, जबकि कोई कड़ा कानून बनाने पर मुसलमानों के साथ-साथ हिंदुओं में भी कई समुदाय इसके विरोध में खड़े हो सकते हैं और सरकार को असहज स्थिति का सामना करना पड़ सकता है।
मुस्लिम समाज की सबसे बड़ी समस्या जनसंख्या
जनसंख्या नियंत्रण कानून की मांग करने वाली याचिका सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल कर चुकीं सामाजिक कार्यकर्ता अंबर जैदी ने अमर उजाला से कहा कि जनसंख्या विस्फोट मुस्लिम समुदाय की एक बड़ी समस्या है। ज्यादा बच्चे होने के कारण गरीब परिवार अपने बच्चों को उचित शिक्षा नहीं दे पाते और अशिक्षित या कम शिक्षित होने के कारण बाद में उन्हें बेहतर विकास के अवसर नहीं मिलते। गरीब मुस्लिम परिवारों के बच्चे ज्यादातर मदरसों में पढ़ने के लिए मजबूर होते हैं, जहां उन्हें प्रमुख रूप से केवल धार्मिक शिक्षा दी जाती है। ऐसे बच्चों में धार्मिक कट्टरता भी ज्यादा होती है जो बाद में अन्य दूसरी समस्याओं को जन्म देती है।
अंबर जैदी के मुताबिक, मुस्लिम महिलाओं की समस्या किसी भी दूसरे समुदाय की महिलाओं के समान है। बच्चे पैदा होने के बाद उन पर घर चलाने की जिम्मेदारी सबसे अहम हो जाती है, इसमें उनके अपने विकास की संभावना लगभग खत्म हो जाती है। आधुनिक मुस्लिम युवतियां शिक्षा-रोजगार सुनिश्चित होने के बाद ही विवाह करने को प्राथमिकता दे रही हैं, लेकिन यह प्रतिशत बहुत कम है।
जब शफीकुर्रहमान जैसे नेता धार्मिक आधार पर महिलाओं को केवल शादी करने या बच्चा पैदा करने तक सीमित रखने जैसी बात कहते हैं, तो निम्न वर्गीय मुस्लिम परिवारों में बच्चियों की शिक्षा कम रखने या उनका कम उम्र में विवाह करने को एक धार्मिक बहाना मिल जाता है। इससे उनकी आगे की राह कठिन हो जाती है, और उनका विकास रुक जाता है। उन्होंने कहा कि इस मामले की गंभीरता को समझते हुए सभी समुदायों के नेताओं को आपस में बैठकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इस समस्या का समाधान खोजना चाहिए।
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