Madarsa Survey: क्या मुस्लिमों को भरोसे में लेगी सरकार? क्यों उठी मदरसों में हिंदु शिक्षकों के पढ़ाने की बात

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उत्तर प्रदेश प्रशासन ने राज्य के सभी मदरसों का सर्वे कराने का निर्देश देकर अल्पसंख्यक समुदाय के मन में एक नई आशंका को जन्म दे दिया है। अल्पसंख्यक समुदाय के कुछ नेताओं ने इसको लेकर बयानबाजी भी शुरू कर दी है, तो मुसलमानों की बड़ी धार्मिक संस्था जमीअत-उलमा-ए-हिंद भी इस पर बारीक निगाह रखे हुए है। वहीं, सरकार के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री दानिश आजाद ने कहा है कि सरकार मदरसों की स्थिति का सर्वे कराकर उसको आधुनिक बनाने का काम करना चाहती है। इससे मुसलमान समुदाय के बच्चों का हित होगा। यदि सरकार के इरादे सही हैं तो इस मामले पर अल्पसंख्यक समुदाय के मन में आशंका के बादल क्यों मंडरा रहे हैं?

यूपी में 16,461 पंजीकृत मदरसे हैं। अनुमान है कि प्रदेश भर में लगभग 40 हजार मदरसे चल रहे हैं, जिनमें बड़ी संख्या में मदरसे रजिस्टर्ड नहीं हैं। इनमें पढ़ने वाले छात्रों की संख्या का कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं है, लेकिन अल्पसंख्यक समुदाय के विद्वानों का मानना है कि इसमें मुसलमानों के लगभग चार फीसदी बच्चे ही शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। शेष बच्चे माता-पिता की आर्थिक स्थिति के अनुसार सरकार द्वारा संचालित स्कूलों या महंगे प्राइवेट स्कूलों में पढ़ रहे हैं।

सरकार से जुड़े अधिकारियों ने बताया है कि राष्ट्रीय बाल अधिकार आयोग की एक रिपोर्ट के बाद हो रहे इस सर्वे से मदरसों में पढ़ने वाले बच्चों की संख्या, उन्हें पढ़ाए जाने वाले विषयों और बाथरूम-पानी जैसी मूलभूत आवश्यकता की चीजों की सूचना इकट्ठी की जाएगी। पांच अक्तूबर तक चलने वाले इस सर्वे की रिपोर्ट 25 अक्तूबर तक प्रशासन को सौंपनी है।   

गरीब मुसलमानों को लाभ, विरोध गलत

मुसलमानों के मामलों के जानकार डॉ. फैयाज अहमद फैजी ने अमर उजाला से कहा कि अमीर मुसलमानों के बच्चे बड़े-बड़े स्कूलों में पढ़ते हैं, जबकि पसमांदा समुदाय के गरीब बच्चों को शिक्षा के लिए मदरसा ही एकमात्र विकल्प बचता है। इन मदरसों में ज्यादातर केवल धार्मिक शिक्षा दी जाती है, जिससे बाद में वे किसी अच्छे रोजगार के लिए उपयुक्त उम्मीदवार नहीं बन पाते। इससे मजबूरन उन्हें मेहनत-मजदूरी या छोटे-छोटे कामकाज करने पड़ते हैं और वे गरीबी के दुष्चक्र से कभी बाहर नहीं निकल पाते।

आरोप यहां तक है कि इन मदरसों में बच्चों का शोषण भी होता है। कई मामलों में उन्हें गलत रास्ते पर धकेल दिया जाता है। इन मदरसों में पढ़ाने वाले मौलवियों की स्थिति भी बहुत बेहतर नहीं होती। लेकिन धार्मिक मामला होने के कारण कोई इन पर टिप्पणी करने से बचता है, लिहाजा इनकी बुरी स्थिति में कोई सुधार नहीं हो पाता। चूंकि, अल्पसंख्यक समुदाय स्वयं इन शिक्षण संस्थाओं की स्थिति सुधारने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठा रहा है, सरकार को यह सर्वे करके गरीब मुसलमानों के बच्चों के भविष्य को सुधारने की कोशिश करनी चाहिए।  

उन्होंने कहा कि मदरसों में केवल मुस्लिम समुदाय के शिक्षक ही पढ़ाते हैं। उन्होंने प्रश्न किया कि यदि बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में एक मुसलमान प्रोफेसर संस्कृत की शिक्षा दे सकता है, तो किसी मदरसे में कोई शिक्षित हिंदू समुदाय का व्यक्ति कुरान या उर्दू की शिक्षा क्यों नहीं दे सकता? या दूसरे धर्म के शिक्षकों को विज्ञान, कंप्यूटर या कला की शिक्षा देने की अनुमति मिलनी चाहिए। उनके मुताबिक, सेकुलरिज्म को हिंदू-मुसलमान दोनों समुदायों पर एक साथ और समान मात्रा में लागू किया जाना चाहिए तभी देश की एकता मजबूत होगी।

केवल धार्मिक शिक्षा तर्कसंगत नहीं

डॉ. फैयाज अहमद फैजी ने कहा कि सरकार मदरसों का सर्वे कराकर इनकी स्थिति सुधारना चाहती है। अब बच्चों को केवल धार्मिक शिक्षा देना किसी भी दृष्टि से तर्कसंगत नहीं है। पीएम नरेंद्र मोदी लगातार मदरसों के छात्रों के एक हाथ में कुरान तो दूसरे में कंप्यूटर होने की बात करते रहे हैं। यदि सरकार इस तरह मदरसों का विकास करना चाहती है, तो इससे गरीब मुसलमानों के बच्चों की स्थिति सुधरेगी। उन्होंने कहा कि सरकार के इस कदम का स्वागत किया जाना चाहिए।

अल्पसंख्यकों को भरोसे में लेना जरूरी

जमाते इस्लामी हिंद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष प्रो. सलीम इंजीनियर ने अमर उजाला से कहा कि यदि सरकार मदरसों में कोई सुधार करना चाहती है, तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए। लेकिन इस तरह का कोई भी कदम उठाने के पहले अल्पसंख्यक समुदाय को भरोसे में लिया जाना चाहिए। मुसलमानों को भरोसे में लिए बिना इस तरह के कदम उठाने से सरकार की मंशा पर संदेह पैदा होता है।

प्रो. सलीम इंजीनियर ने कहा कि उत्तर प्रदेश में हजारों ऐसे स्कूल हैं, जहां कक्षाएं तक नहीं हैं। उनमें शौचालय या पानी पीने की व्यवस्था तक नहीं है। यदि सरकार की मंशा साफ है तो उसे सबसे पहले इन स्कूलों की हालत सुधारनी चाहिए, जहां हर समाज और हर वर्ग के बच्चे पढ़ते हैं। इससे हर समुदाय के लोगों का भला होता। सरकारी स्कूलों की खराब हालत होते हुए भी सरकार केवल मुसलमानों के बच्चों के पढ़ने की जगह मदरसों को ही क्यों सुधारना चाहती है, यही कारण है कि सरकार के इस कदम पर संदेह पैदा होता है।

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उत्तर प्रदेश प्रशासन ने राज्य के सभी मदरसों का सर्वे कराने का निर्देश देकर अल्पसंख्यक समुदाय के मन में एक नई आशंका को जन्म दे दिया है। अल्पसंख्यक समुदाय के कुछ नेताओं ने इसको लेकर बयानबाजी भी शुरू कर दी है, तो मुसलमानों की बड़ी धार्मिक संस्था जमीअत-उलमा-ए-हिंद भी इस पर बारीक निगाह रखे हुए है। वहीं, सरकार के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री दानिश आजाद ने कहा है कि सरकार मदरसों की स्थिति का सर्वे कराकर उसको आधुनिक बनाने का काम करना चाहती है। इससे मुसलमान समुदाय के बच्चों का हित होगा। यदि सरकार के इरादे सही हैं तो इस मामले पर अल्पसंख्यक समुदाय के मन में आशंका के बादल क्यों मंडरा रहे हैं?

यूपी में 16,461 पंजीकृत मदरसे हैं। अनुमान है कि प्रदेश भर में लगभग 40 हजार मदरसे चल रहे हैं, जिनमें बड़ी संख्या में मदरसे रजिस्टर्ड नहीं हैं। इनमें पढ़ने वाले छात्रों की संख्या का कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं है, लेकिन अल्पसंख्यक समुदाय के विद्वानों का मानना है कि इसमें मुसलमानों के लगभग चार फीसदी बच्चे ही शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। शेष बच्चे माता-पिता की आर्थिक स्थिति के अनुसार सरकार द्वारा संचालित स्कूलों या महंगे प्राइवेट स्कूलों में पढ़ रहे हैं।

सरकार से जुड़े अधिकारियों ने बताया है कि राष्ट्रीय बाल अधिकार आयोग की एक रिपोर्ट के बाद हो रहे इस सर्वे से मदरसों में पढ़ने वाले बच्चों की संख्या, उन्हें पढ़ाए जाने वाले विषयों और बाथरूम-पानी जैसी मूलभूत आवश्यकता की चीजों की सूचना इकट्ठी की जाएगी। पांच अक्तूबर तक चलने वाले इस सर्वे की रिपोर्ट 25 अक्तूबर तक प्रशासन को सौंपनी है।   

गरीब मुसलमानों को लाभ, विरोध गलत

मुसलमानों के मामलों के जानकार डॉ. फैयाज अहमद फैजी ने अमर उजाला से कहा कि अमीर मुसलमानों के बच्चे बड़े-बड़े स्कूलों में पढ़ते हैं, जबकि पसमांदा समुदाय के गरीब बच्चों को शिक्षा के लिए मदरसा ही एकमात्र विकल्प बचता है। इन मदरसों में ज्यादातर केवल धार्मिक शिक्षा दी जाती है, जिससे बाद में वे किसी अच्छे रोजगार के लिए उपयुक्त उम्मीदवार नहीं बन पाते। इससे मजबूरन उन्हें मेहनत-मजदूरी या छोटे-छोटे कामकाज करने पड़ते हैं और वे गरीबी के दुष्चक्र से कभी बाहर नहीं निकल पाते।

आरोप यहां तक है कि इन मदरसों में बच्चों का शोषण भी होता है। कई मामलों में उन्हें गलत रास्ते पर धकेल दिया जाता है। इन मदरसों में पढ़ाने वाले मौलवियों की स्थिति भी बहुत बेहतर नहीं होती। लेकिन धार्मिक मामला होने के कारण कोई इन पर टिप्पणी करने से बचता है, लिहाजा इनकी बुरी स्थिति में कोई सुधार नहीं हो पाता। चूंकि, अल्पसंख्यक समुदाय स्वयं इन शिक्षण संस्थाओं की स्थिति सुधारने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठा रहा है, सरकार को यह सर्वे करके गरीब मुसलमानों के बच्चों के भविष्य को सुधारने की कोशिश करनी चाहिए।  

उन्होंने कहा कि मदरसों में केवल मुस्लिम समुदाय के शिक्षक ही पढ़ाते हैं। उन्होंने प्रश्न किया कि यदि बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में एक मुसलमान प्रोफेसर संस्कृत की शिक्षा दे सकता है, तो किसी मदरसे में कोई शिक्षित हिंदू समुदाय का व्यक्ति कुरान या उर्दू की शिक्षा क्यों नहीं दे सकता? या दूसरे धर्म के शिक्षकों को विज्ञान, कंप्यूटर या कला की शिक्षा देने की अनुमति मिलनी चाहिए। उनके मुताबिक, सेकुलरिज्म को हिंदू-मुसलमान दोनों समुदायों पर एक साथ और समान मात्रा में लागू किया जाना चाहिए तभी देश की एकता मजबूत होगी।

केवल धार्मिक शिक्षा तर्कसंगत नहीं

डॉ. फैयाज अहमद फैजी ने कहा कि सरकार मदरसों का सर्वे कराकर इनकी स्थिति सुधारना चाहती है। अब बच्चों को केवल धार्मिक शिक्षा देना किसी भी दृष्टि से तर्कसंगत नहीं है। पीएम नरेंद्र मोदी लगातार मदरसों के छात्रों के एक हाथ में कुरान तो दूसरे में कंप्यूटर होने की बात करते रहे हैं। यदि सरकार इस तरह मदरसों का विकास करना चाहती है, तो इससे गरीब मुसलमानों के बच्चों की स्थिति सुधरेगी। उन्होंने कहा कि सरकार के इस कदम का स्वागत किया जाना चाहिए।

अल्पसंख्यकों को भरोसे में लेना जरूरी

जमाते इस्लामी हिंद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष प्रो. सलीम इंजीनियर ने अमर उजाला से कहा कि यदि सरकार मदरसों में कोई सुधार करना चाहती है, तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए। लेकिन इस तरह का कोई भी कदम उठाने के पहले अल्पसंख्यक समुदाय को भरोसे में लिया जाना चाहिए। मुसलमानों को भरोसे में लिए बिना इस तरह के कदम उठाने से सरकार की मंशा पर संदेह पैदा होता है।

प्रो. सलीम इंजीनियर ने कहा कि उत्तर प्रदेश में हजारों ऐसे स्कूल हैं, जहां कक्षाएं तक नहीं हैं। उनमें शौचालय या पानी पीने की व्यवस्था तक नहीं है। यदि सरकार की मंशा साफ है तो उसे सबसे पहले इन स्कूलों की हालत सुधारनी चाहिए, जहां हर समाज और हर वर्ग के बच्चे पढ़ते हैं। इससे हर समुदाय के लोगों का भला होता। सरकारी स्कूलों की खराब हालत होते हुए भी सरकार केवल मुसलमानों के बच्चों के पढ़ने की जगह मदरसों को ही क्यों सुधारना चाहती है, यही कारण है कि सरकार के इस कदम पर संदेह पैदा होता है।

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