‘नाम मुलायम सिंह है, लेकिन काम बड़ा फौलादी है… जिसका जलवा कायम है उसका नाम मुलायम है।’ नब्बे के दशक में इन नारों की गूंज ने यूपी में कांग्रेस की नींव ही नहीं हिलाई बल्कि उसके तत्कालीन राष्ट्रीय नेताओं और राहुल-प्रियंका के पूर्वजों के घर से उनकी पार्टी का बोरिया बिस्तर समेटने की भी बुनियाद रख दी। इसी कालखंड में देश की राजनीति की दिशा व दशा तय करने वाली लोकसभा सीटों के लिहाज से सबसे बड़े एवं महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश में छोटे कद के मुलायम के बड़े सियासी किरदार की धमाकेदार आमद दर्ज हुई। इस किरदार ने नए जातीय गुणा-भाग के ऐसे प्रयोग किए, जिससे न सिर्फ प्रदेश में नए राजनीतिक समीकरणों की रचना हुई बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी सर्वथा नई सियासी गणित की शुरुआत हो गई।
यूपी की राजनीति का मुलायम से परिचय तो 60 के दशक में ही हो गया था जब महज 15 साल की उम्र में उन्हें प्रदेश की तत्कालीन सरकार के खिलाफ नहर रेट आंदोलन में शामिल होने पर गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया था। हालांकि चर्चा में तब आए जब 1967 में इटावा के जसवंतनगर सीट पर कांग्रेस के दिग्गज लाखन सिंह को पराजित कर पहली बार विधानसभा पहुंचे।
हालांकि उनकी असली राजनीतिक पारी शुरू हुई बोफोर्स तोप घोटाले में घिरी तत्कालीन राजीव गांधी सरकार के खिलाफ यूपी में मुखरता एवं क्रांति रथ की यात्रा के साथ 1989 में। उनकी पारी प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के साथ लगातार बड़ी और महत्वपूर्ण होती चली गई। वे यूपी की सियासत के पहलवान बनकर उभरे और अपनों ही नहीं सियासी विरोधियों के बीच भी ‘नेताजी’ नाम से सम्मानित हुए।
उन पर राजनीति में परिवारवाद को बढ़ावा देने के आरोप लगे। मुस्लिम तुष्टीकरण का आरोप भी लगा। जातिवाद की सियासत की तोहमत भी चस्पा हुई, पर आम आदमी से संवाद, उनके सुख-दुख में साथ खड़े होने, जमीनी राजनीति करने एवं लोगों की नब्ज पकड़ने की उनकी काबिलियत ही थी जिसने उन्हें सियासत का ‘धरती पुत्र’ बना दिया।
मिले मुलायम और कांशीराम…
बसपा संस्थापक कांशीराम ने एक इंटरव्यू में कहा था कि अगर मुलायम से वे हाथ मिला लें तो यूपी से सभी दल साफ हो जाएंगे। इसी इंटरव्यू को पढ़ने के बाद मुलायम दिल्ली में कांशीराम से मिलने उनके निवास पर गए थे।
कांशीराम की सलाह पर ही मुलायम ने 1992 में सपा का गठन किया। अयोध्या में ढांचा विध्वंस के बाद 1993 में हुए चुनाव में बसपा व सपा साथ आए और भाजपा से कम सीटें होने के बावजूद कांग्रेस की मदद से सरकार बनाई।
एमवाई फैक्टर: एकमात्र ऐसे राजनेता जो 19% मुस्लिम एवं 8% यादव के एमवाई फॉर्मूले से सियासी समीकरण गढ़कर सत्ता तक पहुंचे।
यूपी के एकमात्र राजनेता रहे जो खुद भी मुख्यमंत्री रहे और जिनके पुत्र ने भी यह जिम्मेदारी निभाई।
अखाड़े के पहलवान मुलायम ने सियासत भी पहलवानी की तरह ही की
मुलायम को यूपी की सियासत का पहलवान यूं ही नहीं माना जाता। बचपन से अखाड़े के पहलवान मुलायम ने सियासत भी पहलवानी की तरह ही की। अपने से काफी ताकतवर पहलवान को धोबी पछाड़ दांव से पटकनी देकर इटावा के जसवंतनगर से तत्कालीन विधायक नत्थू सिंह को प्रभावित कर उनकी जगह विधायकी का चुनाव लड़ने का आशीर्वाद पाने वाले मुलायम पर राजनीतिक गुरुओं की कृपा खूब बरसी। यह बात दीगर है कि सियासत में आगे बढ़ने के लिए अपने किसी गुरु पर तो कभी उनके घरवालों को धोबी पाट दांव से पटकनी देने के राजनीतिक अध्याय भी जुड़े।
अयोध्या आंदोलन एवं मंडल कमीशन जैसे मुद्दों के बीच बनते-बिगड़ते राजनीतिक समीकरणों को साधते हुए वे प्रदेश के 19% मुस्लिम एवं 8% यादव बिरादरी के ज्यादातर वोट अपने साथ जोड़कर ऐसी सियासी धुरी बन गए जिनके बिना राष्ट्रीय राजनीति में गैर कांग्रेस और गैर भाजपा मोर्चे की कल्पना भी मुश्किल हो गई। इटावा के एक छोटे और अनजान से गांव सैफई के सुघर सिंह यादव एवं मूर्ति देवी के छह बेटे-बेटियों में दूसरे नंबर का पहलवान पुत्र करीब चार दशक तक सियासत का सूरमा रहा।
फर्श से अर्श तक: कुश्ती से लेकर सियासी अखाड़े तक अपने दांव से विरोधियों को मात देने वाले मुलायम को लोगों ने जीवन के अंतिम पड़ाव पर अपनों के ही हाथों मात खाते हुए भी देखा। राजनीति का सबसे मजबूत और एकजुट माने जाने वाला परिवार बिखरा। पार्टी की दुर्गति हुई। मुलायम के राजनीतिक इतिहास में उसी पुत्र के हाथों पार्टी की अध्यक्षी से बेदखल होने का काला अध्याय भी जुड़ा जिसे उन्होंने मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाया। ताउम्र समाजवादी धारा एवं लोहिया की राह पर चलने वाले इस नेता को अपने घर के एक सदस्य को भाजपा में जाते हुए भी देखना पड़ा। शिवपाल सिंह यादव के रूप में एक भाई को पार्टी से ही नहीं, बल्कि परिवार से भी दूर जाते देखना पड़ा। बड़े अरमानों से 1992 में बनाई पार्टी की दुर्गति भी देखनी पड़ी। बावजूद इसके मुलायम को अलग कर प्रदेश या देश की सियासत का जिक्र कभी पूरा नहीं होगा।
मुसलमानों के महबूब नेता बनकर उभरे
यारों के यार और अपनों के लिए कुछ भी कर गुजरने की पहचान रखने वाले मुलायम को लेकर बड़े-बड़े राजनीतिक पंडितों के लिए भी यह अंदाजा लगाना मुश्किल रहा कि सियासत में वे किसके खिलाफ हैं? कब कौन से दांव चलेंगे या किस विरोधी पर कौन सा वार करेंगे? बोफोर्स तोप घोटाले को लेकर कांग्रेस के खिलाफ देशव्यापी अभियान में भाजपा के साथ खड़े मुलायम अयोध्या आंदोलन के समय उनके दुश्मन बनकर सामने आए।
भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति से दो-दो हाथ करने के एलान के साथ वे मुसलमानों के महबूब नेता बनकर उभरे। पर, आगे चलकर बात जब सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की आई तो उन्होंने विदेशी नागरिकता का मुद्दा उठाकर एक तरह से भाजपा की सरकार बनने की राह आसान कर दी। उन वीपी सिंह को भी पटकनी देने से नहीं चूके, जिनके लिए उन्होंने 1989 में वोट मांगे थे। मुलायम का राष्ट्रीय राजनीति में प्रवेश 1996 में हुआ जब अटल बिहारी वाजपेयी की 13 दिन की सरकार गिरने के बाद संयुक्त मोर्चा ने सरकार बनाई। एचडी देवेगौडा के नेतृत्व वाली इस सरकार में मुलायम रक्षामंत्री बनाए गए थे। पर, यह सरकार ज्यादा नहीं चली। तीन साल में दो प्रधानमंत्री देने के बाद सत्ता से बाहर हो गई।
वर्ष 1999 की बात है। भाजपा के धुर विरोधी समझे जाने वाले मुलायम को लेकर लोग मानते थे कि जरूरत पड़ने पर वे कांग्रेस का साथ देंगे। पर, 1999 में उनके समर्थन का आश्वासन न मिलने पर कांग्रेस सरकार बनाने में असफल रही और दोनों पार्टियों के संबंधों में कड़वाहट पैदा हो गई। लोग मानते थे कि अयोध्या आंदोलन के दौरान मुस्लिम परस्त राजनीति के पैरोकार बनकर उभरे मुलायम किसी भी स्थिति में कभी भाजपा से रिश्ता नहीं रखेंगे। पर, 2003 में मुलायम के नेतृत्व में बनी सरकार के पीछे भाजपा की ही भूमिका महत्वपूर्ण मानी जाती है।