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उर्दू के मशहूर शायर रघुपति सहाय फिराक का संगम के शहर से गहरा रिश्ता रहा है। महात्मा गांधी की गिरफ्तारी के विरोध में पहली बार गजल लिखकर ही वह जेल गए थे। तब उन्हें मलाका जेल में रखा गया था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग के शिक्षक रहे फिराक गोरखपुरी से जुड़े कई संस्मरण अब भी दोहराए जाते हैं। महात्मा गांधी की गिरफ्तारी के विरोध में स्वदेश के संपादकीय में उनकी जो पहली गजल छपी, उसका मिसरा था -जो जबाने बंद थीं आजाद हो जाने को हैं…।
इस गजल के छपने के बाद 27 फरवरी 1921 को पहली बार फिराक गिरफ्तार हुए। इसके बाद उन्हें शहर की मलाका जेल में रखा गया। रिहाई के बाद को पं. जवाहर लाल नेहरू ने स्वराज भवन में इंटर सेक्रेटरी नियुक्त कर दिया था। स्वराज भवन में उन्हें रहने के लिए एक कमरा भी दिया गया। 1927 तक वह इंटर सेक्रेटरी के पद पर रहे। सरस्वती पत्रिका के संपादक रविनंदन सिंह बताते हैं कि यहां से हटने के बाद 1930 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में उन्हें प्राध्यापक की नौकरी मिल गई।
यह कम लोग जानते हैं कि साहित्य की दुनिया में फिराक का प्रवेश हिंदी के रास्ते हुआ था। बाद में वह उर्दू की बगिया के फूल बनकर खिले। फिराक को रचनाकार होने का वीजा हिंदी भाषा ने प्रदान किया। रविनंदन सिंह बताते हैं कि जहां प्रेमचंद उर्दू से हिंदी में आए थे, वहीं फिराक हिंदी से उर्दू के क्षेत्र में गए। हिंदी लेखन के क्षेत्र में उनका दाखिला भी 1919 में प्रेमचंद ने ही कराया था।
यह बात तब की है जब 1916 से 1921 तक प्रेमचंद गोरखपुर के नॉर्मल स्कूल में अध्यापक के रूप में तैनात थे। उसी समय प्रेमचंद ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और एक दिन उन्हें लेकर गोरखपुर से प्रकाशित होने वाले प्रतिष्ठित साप्ताहिक पत्र स्वदेश के संपादक दशरथ प्रसाद द्विवेदी से मिले। द्विवेदी ने प्रेमचंद जैसे प्रतिष्ठित रचनाकार की सिफारिश पर रघुपति सहाय को स्वदेश में सहायक संपादक नियुक्त कर लिया। 20 रुपये मासिक वेतन तय हुआ। यहीं से हिंदी में फिराक की साहित्यिक यात्रा शुरू हुई।
अनुवाद से हुई थी सार्वजनिक लेखन की शुरुआत
स्वदेश में फिराक के सार्वजनिक लेखन की शुरुआत अनुवाद से हुई। रघुपति सहाय अंग्रेजी कवि बायरन के प्रशंसक थे। उन्होंने बायरन की महाकाव्यात्मक कृति डॉनजुआन का दीर्घायुनीर शीर्षक से हिंदी में सुंदर अनुवाद किया। यह अनुवाद स्वदेश में धारावाहिक के रूप में चार भागों में प्रकाशित हुआ। अनुवाद का पहला अंश 15 सितंबर 1919 को प्रकाशित हुआ। यही तिथि फिराक जैसे साहित्यकार की पैदाइश की तिथि है। डॉनजुआन का अंतिम अंश 22 दिसंबर 1919 को प्रकाशित हुआ था। इसके बाद बाबू रघुपति सहाय बीए नाम से फिराक ने स्वदेश के लिए बहुत कुछ लिखा। इसमें लेख, कहानियां, संस्मरण, आलोचना, फीचर सब कुछ था। उन्होंने अज्ञात और लालबुझक्कड़ के छद्मनाम से हास्य-व्यंग्य भी लिखा। यहां तक कि संपादक द्विवेदी जी ने स्वदेश का संपादकीय दायित्व भी रघुपति सहाय को सौंप दिया। अब रघुपति सहाय स्वदेश के संपादकीय भी लिखने लगे।
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उर्दू के मशहूर शायर रघुपति सहाय फिराक का संगम के शहर से गहरा रिश्ता रहा है। महात्मा गांधी की गिरफ्तारी के विरोध में पहली बार गजल लिखकर ही वह जेल गए थे। तब उन्हें मलाका जेल में रखा गया था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग के शिक्षक रहे फिराक गोरखपुरी से जुड़े कई संस्मरण अब भी दोहराए जाते हैं। महात्मा गांधी की गिरफ्तारी के विरोध में स्वदेश के संपादकीय में उनकी जो पहली गजल छपी, उसका मिसरा था -जो जबाने बंद थीं आजाद हो जाने को हैं…।
इस गजल के छपने के बाद 27 फरवरी 1921 को पहली बार फिराक गिरफ्तार हुए। इसके बाद उन्हें शहर की मलाका जेल में रखा गया। रिहाई के बाद को पं. जवाहर लाल नेहरू ने स्वराज भवन में इंटर सेक्रेटरी नियुक्त कर दिया था। स्वराज भवन में उन्हें रहने के लिए एक कमरा भी दिया गया। 1927 तक वह इंटर सेक्रेटरी के पद पर रहे। सरस्वती पत्रिका के संपादक रविनंदन सिंह बताते हैं कि यहां से हटने के बाद 1930 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में उन्हें प्राध्यापक की नौकरी मिल गई।
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