बाराबंकी : करीब दो दशक से भी अधिक समय से पहले घाघरा अब सरयू नदी की विनाशलीला जारी है। सबकुछ लील जाने के नदी के स्वभाव से बखूबी परिचित सरकारी मशीनरी ने कभी तटबंध, कभी गांव तो कभी आबादी को बचाने के नाम पर करोड़ों रुपये फूंक डाले, जाने कितनी परियोजनाएं बनीं और बनकर खत्म हो गईं पर तराईवासियों का नसीब नहीं बदल सका। आज भी नदी का जलस्तर बढ़ते ही वह पलायन करने को विवश हैं। सरकारी परियोजनाएं उस दशा में भी बनती रहीं जब नदी में आने वाली बाढ़ करोड़ों के निर्माण अपने साथ बहाकर ले गई। जिम्मेदार जानते थे कि नदी का स्वभाव ही विनाशक है इसके बावजूद परियोजनाओं में कमी नहीं आई।
थोड़ा पीछे जाकर नजर डाली जाए तो हालात खुद ब खुद गवाही देने लगते हैं। वर्ष 2013 में दक्षिणी तटबंध को बचाने के लिए डायवर्जन योजना पर अमल किया गया। इसके तहत नाला निर्माण कराकर ग्राम लोढ़मऊ को बचाना था। करीब दो करोड़ खर्च हुए, 41 किसानों की जमीनें अधिग्रहीत हुईं और नाला बनकर तैयार हुआ पर नदी में आई बाढ़ सब बहाकर ले गई। इसके बाद वर्ष 2020 में करीब 11 करोड़ की लागत से सिरौली गौसपुर क्षेत्र में पांच स्पर का निर्माण तय हुआ, अभी आधा काम भी नहीं पूरा हुआ था कि बाढ़ ने सबकुछ लील लिया। परियाेजना के बचे काम और धनराशि का क्या हुआ, यह कोई नहीं जानता।
इसके बाद वर्ष 2022 में पांच नई परियोजनाओं को मंजूरी दी गई, खास बात यह कि नई परियोजनाएं पहले से चल रही चार परियोजनाओं से अलग थीं। प्रत्येक परियोजना की लागत की करोड़ों में थी। इन कुछेक योजनाओं के अलावा भी तराई के गांवों, तटबंध, आबादी को बचाने के लिए हर साल प्रोजेक्ट बने, परियोजना स्वीकृत होकर धन आवंटित हुआ, काम भी हुआ पर नतीजा यह कि नदी की धारा अपने साथ सब बहाकर ले गई। सिर्फ एक दशक की ही बात कर ली जाए तो करोड़ों रुपये पानी में बहाने, फूंकने के बावजूद बसना उजड़ना ही तराईवासियों का नसीब है। बाढ़ आते ही पानी में बहे निर्माण कार्यों के जिम्मेदार नई परियोजना पर काम करने लगते हैं। सवाल इस बात का है कि जब सब बाढ़ के पानी में ही बह जाना है तो तराई बचाने के नाम पर सरकारी धन के साथ खेल क्यों।