शिवपाल सिंह यादव व अखिलेश यादव। – फोटो : amar ujala
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सियासी दोराहे पर खड़े प्रसपा संस्थापक शिवपाल सिंह यादव ने सत्ता सानिध्य के बजाय परिवार चुना है। मुलायम सिंह यादव से मिली पारिवारिक हैसियत को बनाए रखने के लिए भाजपा से मुंह मोड़ा और खुद को अखिलेश पर छोड़ दिया है। ऐसे में भविष्य में उनकी मुश्किलें बढ़नी तय है। फिर भी वह सपा के साथ अडिग हैं। विधानसभा चुनाव के बाद मिले अपमान का घूंट पीकर वह कदम बढ़ा रहे हैं। ऐसे में देखना यह होगा कि उनके इस कदम को सियासी तौर पर सपा कितनी तवज्जो देती है।
सियासत के माहिर खिलाड़ी माने जाने वाले शिवपाल के कदम वर्ष 2017 से डगमगाते रहे हैं। वह कभी दो कदम आगे चलते हैं तो कभी पीछे। पिछले कुछ दिनों से वह अपनी हर चाल में उलझते दिख रहे हैं। उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाले भी इस उलझन को लेकर पशोपेश में हैं। सपा से अलग होकर उन्होंने पार्टी बनाई। चुनाव के लिए उम्मीदवार तय किए लेकिन ऐन मौके पर सपा के साथ चले गए। चुनाव बीता। सपा के सत्तासीन होने के मंसूबों पर पानी फिर गया। सपा ने शिवपाल को मनमाफिक तवज्जो नहीं दी। उन्होंने धोखा देने का आरोप लगाया। फिर भाजपा की ओर कदम बढ़ाए, उसके शीर्ष नेतृत्व से नजदीकी बढ़ी।
शिवपाल सदन में मुख्यमंत्री की शान में कसीदे पढ़ने लगे। सपा विधायक होने के बाद भी अपनी ही पार्टी को सवालों में घेरा। यहां तक की प्रो. रामगोपाल द्वारा मुख्यमंत्री को दिए गए पत्र को सार्वजनिक कर चौंका दिया। उनके इस कदम ने सपा को बेचैन किया और भाजपा से गलबहियां होने के सुबूत भी दिए। इसी बीच 10 अक्तूबर को मुलायम सिंह का निधन हो गया। यह टर्निंग प्वाइंट बना। सैफई में पूरा परिवार जाजम पर बैठा, एकजुटता की दुहाई दी गई। शिवपाल के बड़े भाई अभयराम ने कई दौर की बातचीत की। शिवपाल नरम पड़े। अखिलेश की गलतफहमी भी दूर हुई। शिवपाल को लेकर मन में उठने वाले सवाल धीरे-धीरे दूर होते दिखे।
…अब सम्मान बचाते हुए उतरे मैदान में मैनपुरी से डिंपल यादव प्रत्याशी बनाई गईं। शिवपाल ने जसवंत नगर सहित विभिन्न इलाके में बैठक कर समर्थकों की नब्ज टटोली। सभी ने नेताजी के नाम पर एकजुटता का संदेश दिया। फिर भी शिवपाल को डिंपल के नामांकन में नहीं बुलाया गया। उन्होंने चुप्पी साध ली लेकिन चंद दिनों बाद सपा शीर्ष नेतृत्व को यह महसूस हुआ कि बिना शिवपाल के चुनावी वैतरणी पार नहीं की जा सकती है। आखिरकार अखिलेश और डिंपल ने पहल की। वे शिवपाल को मनाने पहुंचे। मौके की नजाकत को भांपते हुए शिवपाल ने जीताने का वचन दे दिया। अब पूरी तन्मयता से मैदान में हैं लेकिन जब तब वह सपा के सत्तासीन नहीं होने के लिए अखिलेश को जिम्मेदार ठहराने से नहीं चूकते हैं। इस रणनीति के जरिए वह अपनी अनदेखी का मुद्दा भी उठाते रहते हैं।
भाजपा से भी मनमाफिक नहीं मिली तवज्जो
शिवपाल के सामने एक तरफ परिवार था तो दूसरी तरफ भाजपा के साथ सत्ता सानिध्य। शिवपाल ने परिवार चुना। इसके पीछे कई वजहें हैं। एक बड़ी वजह यह बताई जा रही है कि पिछले कुछ दिनों से भाजपा उस तरह की तवज्जो नहीं दे रही थी, जिसकी वह ख्वाहिशमंद थे। लोकसभा चुनाव के दौरान तवज्जो मिलेगी, इस पर भी भाजपा ने पत्ते नहीं खोले थे। दूसरी तरफ परिवार व रिश्तेदार नेताजी की अंतिम इच्छा का हवाला देकर दबाव बना रहे थे।
बेटे आदित्य यादव के भविष्य की भी चिंता शिवपाल के सामने अब बेटे आदित्य यादव और उनके साथ निरंतर कंधे से कंधा मिलाकर संघर्षशील रहने वालों के भविष्य को लेकर भी चिंता है। यही वजह है कि वह भरे मंच से परिवार के लिए किसी भी तरह की कुर्बानी देने का एलान कर रहे हैं। इनके सियासी मायने भी हैं। जानकारों का कहना है कि विपरीत हालात में भी सपा के साथ उनकी सियासी हैसियत शीर्ष पर है। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने भले एक ही टिकट देकर उन्हें लाचार किया, लेकिन खुले मंच पर वह शिवपाल सिंह के खिलाफ नहीं बोलते हैं। आमना-सामना होने पर पैर छू कर आशीर्वाद लेने से पीछे नहीं रहते हैं। रिश्तों की इस डोर ने भी शिवपाल के कदम को भाजपा की ओर बढ़ने से रोक दिया।
शिवपाल की बढ़ सकती हैं मुश्किलें डिंपल यादव को जीताने के अभियान में जुटे शिवपाल सिंह की मुश्किलें बढ़नी तय हैं। अभी तो उनकी सुरक्षा में कटौती हुई है। भविष्य में कार्यालय समेत अन्य संकट आने से इन्कार नहीं किया जा सकता है। शिवपाल को भी इन संकटों का आभास है। इसकी पुष्टि उनके बेटे आदित्य ने कर दी है। उन्होंने मीडिया से कहा कि भाजपा जो कर रही है, वह अप्रत्याशित नहीं है।
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सियासी दोराहे पर खड़े प्रसपा संस्थापक शिवपाल सिंह यादव ने सत्ता सानिध्य के बजाय परिवार चुना है। मुलायम सिंह यादव से मिली पारिवारिक हैसियत को बनाए रखने के लिए भाजपा से मुंह मोड़ा और खुद को अखिलेश पर छोड़ दिया है। ऐसे में भविष्य में उनकी मुश्किलें बढ़नी तय है। फिर भी वह सपा के साथ अडिग हैं। विधानसभा चुनाव के बाद मिले अपमान का घूंट पीकर वह कदम बढ़ा रहे हैं। ऐसे में देखना यह होगा कि उनके इस कदम को सियासी तौर पर सपा कितनी तवज्जो देती है।
सियासत के माहिर खिलाड़ी माने जाने वाले शिवपाल के कदम वर्ष 2017 से डगमगाते रहे हैं। वह कभी दो कदम आगे चलते हैं तो कभी पीछे। पिछले कुछ दिनों से वह अपनी हर चाल में उलझते दिख रहे हैं। उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाले भी इस उलझन को लेकर पशोपेश में हैं। सपा से अलग होकर उन्होंने पार्टी बनाई। चुनाव के लिए उम्मीदवार तय किए लेकिन ऐन मौके पर सपा के साथ चले गए। चुनाव बीता। सपा के सत्तासीन होने के मंसूबों पर पानी फिर गया। सपा ने शिवपाल को मनमाफिक तवज्जो नहीं दी। उन्होंने धोखा देने का आरोप लगाया। फिर भाजपा की ओर कदम बढ़ाए, उसके शीर्ष नेतृत्व से नजदीकी बढ़ी।
शिवपाल सदन में मुख्यमंत्री की शान में कसीदे पढ़ने लगे। सपा विधायक होने के बाद भी अपनी ही पार्टी को सवालों में घेरा। यहां तक की प्रो. रामगोपाल द्वारा मुख्यमंत्री को दिए गए पत्र को सार्वजनिक कर चौंका दिया। उनके इस कदम ने सपा को बेचैन किया और भाजपा से गलबहियां होने के सुबूत भी दिए। इसी बीच 10 अक्तूबर को मुलायम सिंह का निधन हो गया। यह टर्निंग प्वाइंट बना। सैफई में पूरा परिवार जाजम पर बैठा, एकजुटता की दुहाई दी गई। शिवपाल के बड़े भाई अभयराम ने कई दौर की बातचीत की। शिवपाल नरम पड़े। अखिलेश की गलतफहमी भी दूर हुई। शिवपाल को लेकर मन में उठने वाले सवाल धीरे-धीरे दूर होते दिखे।