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मुलायम सिंह यादव
– फोटो : amar ujala
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बात 1989 की है। बोफोर्स तोप घोटाले को लेकर विश्वनाथ प्रताप सिंह केंद्र की तत्कालीन राजीव गांधी सरकार से अलग हो चुके थे। उन्होंने पूरे देश में नेहरू परिवार तथा कांग्रेस के खिलाफ भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए बिगुल बजा दिया। उन्होंने जनमोर्चा बनाया जिसमें कांग्रेस से अलग हुए कुछ और नेता थे। उनकी मुहिम को जनसमर्थन मिला तो कांग्रेस विरोधी अन्य दल भी उनके साथ आ खड़े हुए थे। इनमें तत्कालीन लोकदल (ब) के नेता मुलायम सिंह यादव और लोकदल (अ) यानी चौधरी अजित सिंह भी थे। चौधरी चरण सिंह के निधन के बाद लोकदल दो हिस्सों में बंट गया था। इन सभी ने मिलकर जनता दल बनाया।
यूपी में मुलायम क्रांति रथ निकाल कर गांव-गांव भ्रष्टाचार के विरुद्ध लोगों के गुस्से को स्वर देते हुए राजनीतिक ताकत जुटा रहे थे। इसके चलते वर्ष 1991 में उन्होंने प्रदेश में जनता दल की सरकार बनने पर खुद को मुख्यमंत्री पद का स्वाभाविक दावेदार मान लिया था। इस पूरे घटनाक्रम के साक्षी रहे समाजवादी नेता निर्मल सिंह बताते हैं कि वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने और उन्होंने छोटे चौधरी अजित सिंह को यूपी का मुख्यमंत्री तथा मुलायम को उप मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा कर दी। पर, कई विधायकों ने मुलायम को मुख्यमंत्री बनाने की मांग उठा दी। खुद मुलायम ने उप मुख्यमंत्री का पद ठुकरा दिया।
केंद्र से मधु दंडवते और चिमन भाई पटेल को उन्हें समझाने के लिए भेजा गया। बात नहीं बनी तो दोपहर बाद मुफ्ती मोहम्मद सईद भी आए, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला। विधायकों के मतदान से नेता के चयन का फैसला हुआ। चौधरी अजित सिंह को भरोसा था कि उन्हें वीपी सिंह के जनमोर्चा घटक के विधायकों का समर्थन मिलेगा और वे नेता चुन लिए जाएंगे। पर, मुलायम ने तगड़ा दांव खेलते हुए अजित सिंह के खेमे के ही 11 विधायकों को न सिर्फ तोड़ लिया, बल्कि जनमोर्चा के विधायकों का भी समर्थन हासिल कर लिया। निर्मल सिंह बताते हैं कि मतदान में पांच वोट से मुलायम ने बाजी मार ली और वे पहली बार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने।
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