देवकली की मिट्टी जहां रखी होती है, वहां नहीं आते सांप

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  • यहीं राजा जन्मेजय ने कराया था पुराण प्रसिद्घ नाग यज्ञ

  • कालसर्प योग निदान के लिए यहां होती है तंत्र साधना

  • नाग पूजा के लिए यहां दूर क्षेत्रों से आते हैं श्रद्धालु

लखीमपुर खीरी। जिले में एक ऐसा स्थान है जिसके बारे में मान्यता है कि यहां की मिट्टी जहां रख दी जाए वहां सांप नहीं आते। शहर से पश्चिम में करीब नौ किलोमीटर दूर स्थित यह स्थान पौराणिक देवकली तीर्थ के नाम से प्रसिद्घ है। यह जगह महाभारत कालीन राजा जन्मेजय की नाग यज्ञ स्थली के रूप में जाना जाता है। 
जनश्रुति है कि राजा जन्मेजय ने अपने पिता राजा परीक्षित की तक्षक नाग के डसने से हुई मौत का बदला लेने के लिए यहीं पर सर्प यज्ञ किया था। यहां मौजूद सर्पकुंड और कुंड की गहराई में मिलने वाली हवन की भस्म और अवशेष इस जनश्रुति की पुष्टि करते हैं। यहां ऊंचे टीलों में सांपों की सैकड़ों बांबियां हैं, जिनमें विभिन्न प्रजातियों के सांप रहते हैं। कभी देवस्थली के नाम से प्रसिद्ध इस स्थान का नाम बिगड़ते-बिगड़ते देवकली हो गया। नाग पूजा और काल सर्प योग निवारण के लिए तंत्र साधना का यह प्रमुख केंद्र है। नाग पंचमी के दिन लोग सर्पकुंड की मिट्टी अपने घरों में लेकर जाते हैं, जिससे उन्हें नागों और सर्पों का डर नहीं रहता। 
किवदंती यह भी है कि कलयुग के प्रारंभ में यहां राजा देवक हुए। उनकी पुत्री देवकली ने यहीं तपस्या की थी। उन्हीं के नाम पर इस स्थान का नाम देवकली पड़ा। राजा देवक ने ही यहां पर देवेश्वर शिव मंदिर की स्थापना की थी। मंदिर परिसर में एक खंडित शिवलिंग स्थापित है। बताते हैं कि मुगलों ने इसे पूरी तौर से नष्ट करने की कोशिश की थी, लेकिन वह इसे सिर्फ खंडित ही कर पाए थे। 

देवस्थली के रूप में मिलता है पुराणों में उल्लेख

देवकली का देवस्थली के रूप में पारासर पुराण के तीर्थ महात्म्य में उल्लेख मिलता है। महाभारत कालीन कई पुराणों और ग्रंथों में यहां राजा जन्मेजय द्वारा कराए गए नाग यज्ञ का भी उल्लेख है। नेपाल के एक संत भवानी प्रसाद उपाध्याय उर्फ नेपाली बाबा इस स्थान की खोज करते हुए यहां पहुंचे थे। उन्होंने सर्पकुंड की खुदाई कराई तो पांच फिट की गहराई के बाद राख मिश्रित काली मिट्टी मिली। राजा जन्मेजय की नागयज्ञ स्थली की पुष्टि होने के बाद नेपाली बाबा ने देवकली में चंद्रकला आश्रम की स्थापना की, जो आज भी है। नेपाली बाबा की करीब दो साल पहले मौत हो चुकी है। उनके द्वारा स्थापित आश्रम, द्वादश ज्योर्तिलिंग और अन्य देवमूर्तियां आज भी मौजूद हैं। 

गुप्त काल में यहां समृद्घ बस्ती होने के भी मिले हैं प्रमाण

गुप्तकाल में यहां समृद्ध बस्ती होने के भी प्रमाण मिले हैं। देवकली मंदिर तीर्थ और आसपास क्षेत्र ऊंचे-ऊंचे टीलों से भरा है। यहां खुदाई के दौरान पत्थर की दर्जनों प्राचीन मूर्तियां मिली हैं। युवराजदत्त महाविद्यालय इतिहास विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष डॉ. माणिक लाल गुप्ता का कहना है कि खोदाई में मिली इन मूर्तियों की निर्माण शैली गुप्तकालीन है। इससे यह साबित होता है कि यहां गुप्तकाल में समृद्ध और विकसित बस्ती रही होगी। इसी जगह पर अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल का एक सिक्का भी प्राप्त हुआ है।  

सूर्य उपासना का प्रमुख केंद्र है देवकली

देवकली सूर्य उपासना का प्रमुख केंद्र रही है। देवेश्वरनाथ शिव मंदिर के ठीक सामने 70 मीटर लंबा और 60 मीटर चौड़ा एक मनोरम तीर्थ हैं, जिसमें उत्तर की ओर पक्की सीढ़ियां बनी हुई हैं। महिलाओं के स्नान के लिए स्नानघाट बना है। यह तीर्थ सूर्यकुंड के नाम से प्रसिद्ध है। सूर्यकुंड होने से यह प्रमाणित होता है कि यह स्थान सूर्य उपासना का प्रमुख केंद्र रहा होगा।  

नाग पंचमी पर यहां जुटेंगे सपेरे, लगेगा मेला

नाग पंचमी के दिन देवकली में सपेरों का बड़ा मेला लगता है। जिनकी कुंडली में कालसर्प योग होता है, वह यहां विशेष अनुष्ठान कराते हैं। इससे उनके कालसर्प दोष का निदान हो जाता है। नाग पंचमी के दिन यहां काल सर्प योग के निदान के लिए बड़ी संख्या में लोग आते हैं। इसके अलावा प्राचीन देवेश्वर नाथ शिवलिंग का जलाभिषेक करने और नाग पूजा के लिए यहां दूर दूर से श्रद्घालु आते हैं। नागपंचमी को यहां मेला लगता है। 

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  • यहीं राजा जन्मेजय ने कराया था पुराण प्रसिद्घ नाग यज्ञ

  • कालसर्प योग निदान के लिए यहां होती है तंत्र साधना

  • नाग पूजा के लिए यहां दूर क्षेत्रों से आते हैं श्रद्धालु

लखीमपुर खीरी। जिले में एक ऐसा स्थान है जिसके बारे में मान्यता है कि यहां की मिट्टी जहां रख दी जाए वहां सांप नहीं आते। शहर से पश्चिम में करीब नौ किलोमीटर दूर स्थित यह स्थान पौराणिक देवकली तीर्थ के नाम से प्रसिद्घ है। यह जगह महाभारत कालीन राजा जन्मेजय की नाग यज्ञ स्थली के रूप में जाना जाता है। 

जनश्रुति है कि राजा जन्मेजय ने अपने पिता राजा परीक्षित की तक्षक नाग के डसने से हुई मौत का बदला लेने के लिए यहीं पर सर्प यज्ञ किया था। यहां मौजूद सर्पकुंड और कुंड की गहराई में मिलने वाली हवन की भस्म और अवशेष इस जनश्रुति की पुष्टि करते हैं। यहां ऊंचे टीलों में सांपों की सैकड़ों बांबियां हैं, जिनमें विभिन्न प्रजातियों के सांप रहते हैं। कभी देवस्थली के नाम से प्रसिद्ध इस स्थान का नाम बिगड़ते-बिगड़ते देवकली हो गया। नाग पूजा और काल सर्प योग निवारण के लिए तंत्र साधना का यह प्रमुख केंद्र है। नाग पंचमी के दिन लोग सर्पकुंड की मिट्टी अपने घरों में लेकर जाते हैं, जिससे उन्हें नागों और सर्पों का डर नहीं रहता। 

किवदंती यह भी है कि कलयुग के प्रारंभ में यहां राजा देवक हुए। उनकी पुत्री देवकली ने यहीं तपस्या की थी। उन्हीं के नाम पर इस स्थान का नाम देवकली पड़ा। राजा देवक ने ही यहां पर देवेश्वर शिव मंदिर की स्थापना की थी। मंदिर परिसर में एक खंडित शिवलिंग स्थापित है। बताते हैं कि मुगलों ने इसे पूरी तौर से नष्ट करने की कोशिश की थी, लेकिन वह इसे सिर्फ खंडित ही कर पाए थे। 

देवस्थली के रूप में मिलता है पुराणों में उल्लेख

देवकली का देवस्थली के रूप में पारासर पुराण के तीर्थ महात्म्य में उल्लेख मिलता है। महाभारत कालीन कई पुराणों और ग्रंथों में यहां राजा जन्मेजय द्वारा कराए गए नाग यज्ञ का भी उल्लेख है। नेपाल के एक संत भवानी प्रसाद उपाध्याय उर्फ नेपाली बाबा इस स्थान की खोज करते हुए यहां पहुंचे थे। उन्होंने सर्पकुंड की खुदाई कराई तो पांच फिट की गहराई के बाद राख मिश्रित काली मिट्टी मिली। राजा जन्मेजय की नागयज्ञ स्थली की पुष्टि होने के बाद नेपाली बाबा ने देवकली में चंद्रकला आश्रम की स्थापना की, जो आज भी है। नेपाली बाबा की करीब दो साल पहले मौत हो चुकी है। उनके द्वारा स्थापित आश्रम, द्वादश ज्योर्तिलिंग और अन्य देवमूर्तियां आज भी मौजूद हैं। 

गुप्त काल में यहां समृद्घ बस्ती होने के भी मिले हैं प्रमाण

गुप्तकाल में यहां समृद्ध बस्ती होने के भी प्रमाण मिले हैं। देवकली मंदिर तीर्थ और आसपास क्षेत्र ऊंचे-ऊंचे टीलों से भरा है। यहां खुदाई के दौरान पत्थर की दर्जनों प्राचीन मूर्तियां मिली हैं। युवराजदत्त महाविद्यालय इतिहास विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष डॉ. माणिक लाल गुप्ता का कहना है कि खोदाई में मिली इन मूर्तियों की निर्माण शैली गुप्तकालीन है। इससे यह साबित होता है कि यहां गुप्तकाल में समृद्ध और विकसित बस्ती रही होगी। इसी जगह पर अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल का एक सिक्का भी प्राप्त हुआ है।  

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