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इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि मध्यस्थता कानून 1940 एक स्व-निहित कानून है। उस पर सिविल प्रक्रिया संहिता (सीपीसी) प्रभावी नहीं होगी। इसलिए मध्यस्थ के अधिकार क्षेत्र के बारे में आपत्ति को अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार और उसमें प्रदान की गई समयावधि के भीतर उठाया जाना चाहिए। यह आदेश न्यायमूर्ति पीयूष अग्रवाल की पीठ ने मेसर्स भारत पंप एंड कंप्रेसर्स लिमिटेड की याचिका पर सुनवाई करते हुए दिया है।
मामले में दो पार्टियों ने फैब्रिकेटेड आइटम्स और एसेसरीज आदि के निर्माण के लिए पांच जुलाई 1983 को समझौता किया था। समझौते में मध्यस्थता एक क्लॉज था। दोनों पक्षों के बीच विवाद हो गया, जिसके बाद विरोधी पक्षकार ने पांच मई 1991 को नोटिस भेजकर मध्यस्थता क्लॉज का आह्वान किया और याचिकाकर्ता से मध्यस्थ नामित करने का अनुरोध किया।
याचिकाकर्ता ने उक्त नोटिस का जवाब दिया और दलील दी कि मध्यस्थ नियुक्त करने का अधिकार उसे है। विरोधी पक्ष ने मध्यस्थ के समक्ष अपना दावा दायर किया, एक जनवरी 1992 के एक अधिनिर्णय के जरिये मध्यस्थ ने विरोधी पक्ष के दावे की अनुमति दी।
इसके बाद उसने अवॉर्ड को कोर्ट का नियम बनाने के लिए आवेदन किया। उसको आवेदन की अनुमति दी गई। इसके बाद याचिकाकर्ता ने सीपीसी की धारा 47 के तहत एक आवेदन दायर किया, जिसे अदालत ने खारिज कर दिया। जिसके बाद याची ने पुनरीक्षण याचिका दायर की। कोर्ट ने पाया कि मध्यस्थ की नियुक्ति मध्यस्थता समझौते के अनुसार नहीं थी। कोर्ट ने कहा कि मध्यस्थता अधिनियम 1940 एक स्व-निहित कोड है।
इसलिए, मध्यस्थ के अधिकार क्षेत्र के बारे में आपत्ति अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार और उसमें प्रदान की गई समय अवधि के भीतर उठाई जानी चाहिए। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि मध्यस्थता अधिनियम की धारा 17 के तहत वाद के निष्पादन की कार्यवाही में सीपीसी की धारा 47 के तहत किया गया आवेदन सुनवाई योग्य नहीं है।
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