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बदलाव की बयार के बीच प्रेमचंद के गांव जरूर बदले हैं, लेकिन गोबर, होरी और धनिया की दुनिया आज भी बहुत हद तक बदल नहीं सकी है। ‘गोदान’ लिखे जाने के तकरीबन 86 बरस बाद भी उनके पात्र और प्रतीक नए चोले में नई चुनौतियों के साथ खड़े हैं। यह प्रेमचंद की प्रासंगिकता ही है कि मौजूदा दौर के कई रचनाकार नए दौर केहोरी का हाल बयां करने में जुटे हैं। परिणामस्वरूप ‘फांस’, ‘अकाल में उत्सव’ जैसी रचनाएं पाठकों तक पहुंच रही हैं।
वाराणसी के लमही में 31 जुलाई को जन्मे प्रेमचंद को याद करते हुए कथाकार ममता कालिया कहती हैं कि होरी का संघर्ष खत्म नहीं हुआ है। खेती करने वालों को अब भी उनका वाजिब हक नहीं मिल पा रहा है। हलकू और होरी से लेकर प्रेमचंद के अन्य तमाम पात्र जगह-जगह खड़े दिखाई देते हैं। मध्य वर्ग की समस्याएं यथावत हैं। कहीं कोई सुनवाई नहीं है। कह सकते हैं कि प्रेमचंद का समय और जटिल होकर सामने आ गया है।
प्रेमचंद के गांव और समाज के परिवर्तन को रेखांकित करते हुए आलोचक प्रो. राजेंद्र कुमार कहते हैं कि बेशक आज होरी और जमींदार यथावत नहीं हैं, लेकिन गांवों के विकास के लिए बनी नई व्यवस्था में भी दूसरी तरह से शोषण जारी हैं। शोषण तथा शोषितों के मुद्दे पर हम प्रेमचंद से सीख ले सकते हैं। उनकी वैचारिक मुहिम को आगे बढ़ाने की जरूरत है। प्रेमचंद हमें राह दिखाते हैं।
कथा लेखिका प्रो.अनिता गोपेश समय के साथ चरित्रों में आए बदलाव की बारीकी को देखते हुुए कहती हैं कि आज होरी, धनिया का वह भोलापन नहीं रहा। समाज का चरित्र भी दोहरा हो गया है। प्रेमचंद के आगे की चुनौती और विकराल रूप में है। ऐसे में लड़ने के लिए दूसरे हथियार बनाने पड़ेंगे। प्रेमचंद पहले से अधिक प्रासंगिक हुए हैं।
पंच आज भी परमेश्वर हैं
प्रेमचंद की कहानियों ने लोकनाट्य नौटंकी को पुन:प्रतिष्ठित करने में अहम भूमिका निभाई है। लोककलाविद् अतुल यदुवंशी कहते हैं कि अकेले स्वर्ग रंगमंडल की ओर से ही प्रेमचंद की कहानियों के नौटंकी शैली में सैकड़ों शो हुए क्योंकि उन्हें मंच तक पहुंचाना हमेशा सुखद लगा। कफन के घीसू-माधो, बुधिया हों या बूढ़ी काकी, उनकी संवेदनाएं आज भी सीधे तौर पर दर्शकों से जुड़ती और हमारे इर्द-गिर्द दिखती हैं। पंचों की चौपाल पर आज भी पंच परमेश्वर हैं। हां, उनका स्वरूप बदल गया है।
हमेशा बेस्ट सेलर रही ‘गोदान’
सरस्वती प्रेस से छपी गोदान कभी छह आने की मिलती थी। इसकी कीमत दो सौ रुपये तक पहुंची, फिर भी रही बेस्ट सेलर ही। कापीराइट का उल्लंघन होने के बावजूद गोदान की तकरीबन चार हजार प्रतियां सालाना बिकती रहीं। जब रॉयल्टी खत्म खत्म हो गई तब भी मूल प्रकाशक (सरस्वती प्रेस) से हर साल चार सौ प्रतियां बिकती रहीं। आज ई-बुक और ऑडियो माध्यम से भी प्रेमचंद पाठकों के बीच पैठ बनाए हुए हैं।
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बदलाव की बयार के बीच प्रेमचंद के गांव जरूर बदले हैं, लेकिन गोबर, होरी और धनिया की दुनिया आज भी बहुत हद तक बदल नहीं सकी है। ‘गोदान’ लिखे जाने के तकरीबन 86 बरस बाद भी उनके पात्र और प्रतीक नए चोले में नई चुनौतियों के साथ खड़े हैं। यह प्रेमचंद की प्रासंगिकता ही है कि मौजूदा दौर के कई रचनाकार नए दौर केहोरी का हाल बयां करने में जुटे हैं। परिणामस्वरूप ‘फांस’, ‘अकाल में उत्सव’ जैसी रचनाएं पाठकों तक पहुंच रही हैं।
वाराणसी के लमही में 31 जुलाई को जन्मे प्रेमचंद को याद करते हुए कथाकार ममता कालिया कहती हैं कि होरी का संघर्ष खत्म नहीं हुआ है। खेती करने वालों को अब भी उनका वाजिब हक नहीं मिल पा रहा है। हलकू और होरी से लेकर प्रेमचंद के अन्य तमाम पात्र जगह-जगह खड़े दिखाई देते हैं। मध्य वर्ग की समस्याएं यथावत हैं। कहीं कोई सुनवाई नहीं है। कह सकते हैं कि प्रेमचंद का समय और जटिल होकर सामने आ गया है।
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