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रूस जाने से एक दिन पहले सटीक मुखबिरी की वजह से चंद्रशेखर आजाद अल्फ्रेड पार्क में अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र क्रांति की आखिरी रणनीतिक बैठक के दौरान घेर लिए गए थे। वह उसी शाम को रूस के लिए निकल जाते, लेकिन एक भरोसेमंद साथी को हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक पार्टी की कमान सौंपने के समय धोखा हो गया।
कटरा के एक मकान से निकलकर साइकिल से जाते समय हिंदू हॉस्टल चौराहे पर हुई मुखबिरी का प्रमाण उस दौरान उनके निकट सहयोगी रहे यशपाल की पुस्तक सिंहावलोकन से मिलता है। यशपाल ने अपनी पुस्तक में उनकी रूस यात्रा की तैयारी से लेकर अल्फ्रेड पार्क में गोली लगने तक की घटना का विस्तार से वर्णन किया है। वह लिखते हैं कि वायसराय की ट्रेन के नीचे बम विस्फोट का मुकदमा होने के कारण नेहरू ने ही आजाद को विदेश चले जाने की राय दी थी। इसके लिए उन्होंने छह हजार रुपये की आर्थिक मदद देने की सहमति दी थी।
अपने करीबी शिवमूर्ति सिंह के जरिये नेहरू ने 1500 रुपये रूस जाने के लिए आजाद के पास भिजवाए। वह लिखते हैं कि रूस की यात्रा पर जाने के लिए दूसरे दिन खरीददारी होनी थी। उसी दौरान अल्फ्रेड पार्क जाते समय हिंदू हॉस्टल चौराहे पर मुंह बांधे एक युवक को देख आजाद सशंकित होकर घूरने लगे थे। वहीं से वो पार्क चले गए और कुछ देर बाद ही गोली चलने का शोर मच गया।
रूस जाने से पहले अल्फ्रेड पार्क में आजाद की थी आखिरी बैठक
यशपाल लिखते हैं कि उस रात रूस जाने पर ही चर्चा होती रही। सोचा गया कि बीहड़ इलाकों से जाते समय सौ तरह की बीमारी, मुसीबत आ सकती है। कुछ दवा भी लेते जाएंगे। पंजाब में और आगे सर्दी ज्यादा होगी, इसलिए स्वेटर भी खरीद लें। 27 फरवरी 1931 की सुबह सुरेंद्र पांडेय और यशपाल स्वेटर खरीदने के लिए कटरा से चौक जाने के लिए तैयार हुए।
आजाद के मददगार रहे कोटवा निवासी क्रांतिकारी शिवमूर्ति सिंह के पौत्र एसके सिंह बताते हैं कि उस दिन आजाद ने बाबा से कहा था कि मुझे अल्फ्रेड पार्क में किसी से मिलना है। साथ ही चलते हैं। तुम लोग आगे निकल जाना। वे तीनों साथी अल्फ्रेड पार्क के सामने से साइकिलों पर जा रहे थे। बाबा बताते थे कि एक साइकिल पर सुखदेव राज पार्क में जाते दिखाई दिए। वे लोग समझ गए कि भैया राज से मिलने जा रहे हैं। रूस यात्रा से पहले इलाहाबाद में यही उनकी आखिरी बैठक थी।
इंस्पेक्टर जनरल हार्लिंस ने आजाद के अचूक निशाने की की थी प्रशंसा
आजाद की शहादत की घटना पर आधारित उस समय के यूपी के इंस्पेक्टर जनरल हार्लिंस के एक लेख से भी रोशनी पड़ती है। अंग्रेजी पत्रिका मेन वनली के अक्तूबर 1954 के अंक में हार्लिंस ने इस घटना का जिक्र किया है। इस लेख के अनुसार आजाद की पहली गोली अंग्रेज पुलिस सुपरिंटेंडेंट नाट बाबर की बांह में लगी थी।
पुलिस इंस्पेक्टर विशेश्वर सिंह निशाना लेने के लिए झाड़ी के ऊपर से झांक रहा था। तब आजाद को तीन गोलियां लग चुकी थीं। ऐसी हालत में आजाद ने इंस्पेक्टर के झांकते हुए चेहरे को निशाना बनाकर गोली चलाई जो उसके जबड़े को चीरते हुए निकल गई। हार्लिंस ने अपने संस्मरण में आजाद के इस निशाने की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि यह आजाद का अंतिम परंतु बहुत प्रशंसा योग्य निशाना था।
विस्तार
रूस जाने से एक दिन पहले सटीक मुखबिरी की वजह से चंद्रशेखर आजाद अल्फ्रेड पार्क में अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र क्रांति की आखिरी रणनीतिक बैठक के दौरान घेर लिए गए थे। वह उसी शाम को रूस के लिए निकल जाते, लेकिन एक भरोसेमंद साथी को हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक पार्टी की कमान सौंपने के समय धोखा हो गया।
कटरा के एक मकान से निकलकर साइकिल से जाते समय हिंदू हॉस्टल चौराहे पर हुई मुखबिरी का प्रमाण उस दौरान उनके निकट सहयोगी रहे यशपाल की पुस्तक सिंहावलोकन से मिलता है। यशपाल ने अपनी पुस्तक में उनकी रूस यात्रा की तैयारी से लेकर अल्फ्रेड पार्क में गोली लगने तक की घटना का विस्तार से वर्णन किया है। वह लिखते हैं कि वायसराय की ट्रेन के नीचे बम विस्फोट का मुकदमा होने के कारण नेहरू ने ही आजाद को विदेश चले जाने की राय दी थी। इसके लिए उन्होंने छह हजार रुपये की आर्थिक मदद देने की सहमति दी थी।
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