यूपी का रण : सबकी सुन रहे हैं दलित मतदाता, पर मुट्ठी है बंद, साधने में जुटे सभी दल

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सार

इस बार के चुनाव दलित मतदाता काफी सोच-विचार कर रहा है। वह स्थायी ठौर तलाश रहा है। इस पर भाजपा व सपा-रालोद गठबंधन नजर रख रहे हैं। सूबे में किसी भी गठबंंधन को सत्ता में लाने में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका होगी।

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बीस प्रतिशत से ज्यादा आबादी…। जिसे चाहें उसे सत्ता के शिखर तक पहुंचा दें…। पहुंचाते भी रहे हैं…। बावजूद इसके पिछले कई चुनावों से स्थायी ठौर तलाश रहा दलित वर्ग इस बार काफी सोच-विचार कर रहा है। सियासी दल भी उनकी नब्ज को भांपने मेें जुटे हुए हैं। राजनीतिक दल दलितों के वोटों में हिस्सेदारी हासिल करने के लिए बेकरार हैं।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के चुनावी रण की फिजा इस समय बेहद गर्म है। सभी दलों ने पूरी ताकत झोंक रखी है। भाजपा के सामने जहां अपना पिछला रिकॉर्ड बचाने की चुनौती है, तो विपक्ष की सत्ता परिवर्तन करने की बेताबी साफ नजर आ रही है। यही कारण है कि सपा-रालोद गठबंधन ने चुनावी समर में पूरी ताकत झाेंक दी है। अखिलेश और जयंत ने अपना पूरा जोर पश्चिमी यूपी में लगा दिया है, तो भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से लेकर गृहमंत्री अमित शाह तक ने यूपी को मथ डाला है। बसपा और कांग्रेस दोनों चुनावी रण में ताल ठोक रहे हैं। गठबंधन और भाजपा दोनों की ही नजर दलित मतदाताओं पर है। दोनों ही इसमें कुछ हद तक कामयाब भी हो सकते हैं। क्योंकि, दलित वर्ग के थिंक टैंक में चल रहा मंथन भी इस ओेर इशारा कर रहा है।

समझते हैं ताकत…पहले भी कर चुके हैं कमाल
दलित मतदाता अपनी ताकत को बखूूबी समझते हैं। इसी ताकत के दम पर वे बसपा को सत्ता के शिखर तक पहुंचा चुके हैं। वर्ष 1993 में बसपा चुनावी मैदान में पहली बार उतरी। इस चुनाव में उसकी मतों में हिस्सेदारी 11.12 फीसदी की थी। बसपा ने 67 सीटों पर जीत हासिल की थी। 1996 के चुनाव में वोट शेयर बढ़कर 19.64 फीसदी हो गया। 2002 में मतों की हिस्सेदारी 23.06 प्रतिशत तक पहुंची और 98 सीटों पर उसे जीत हासिल हुई। कमाल तो वर्ष 2007 में हुआ, जब बसपा को 30.43 फीसदी वोट मिले और 206 सीटों के साथ उसने पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता हासिल की। हालांकि, इसमें बसपा सुप्रीमो मायावती की सोशल इंजीनियरिंग का कमाल रहा।

2012 के बाद गिरा ग्राफ
2012 के चुनाव में बसपा का ग्राफ गिरा और 25.95 फीसदी मतों की हिस्सेदारी के साथ बसपा 80 सीटों पर सिमटी। 2017 के चुनाव में बसपा का वोट शेयर 22.24 फीसदी ही रहा। इसका नतीजा यह हुआ कि बसपा 19 सीटों पर सिमट कर रह गई। बावजूद इसके मायावती दलित मतदाताओं के दम पर आज भी मजबूती से न केवल चुनावी रण में ताल ठोक रही हैं, बल्कि फिर से सोशल इंजीनियरिंग के दम पर चुनाव परिणाम बदलने का दावा कर रही हैं।

यूं तो पश्चिमी यूपी में जाटव, खटीक, भुइयार, पासी, वाल्मीकि जैसी अनुसूचित वर्ग की बिरादरियां हैं, पर इनमें पचास प्रतिशत से अधिक वोटर जाटवों का माना जाता है। वाल्मीकि, भुइयार बिरादरियों पर भाजपा का कब्जा रहा है। ऐसे में इस बार निशाने पर जाटव हैं। यूं तो ज्यादातर दलित इस बार भी बसपा के साथ हैं, पर उनकी संख्या भी कम नहीं जो भाजपा और गठबंधन की तरफ जा सकते हैं। इन्हें साधने के लिए दोनों ने ही ताकत लगाई है। गांव जाहिदपुर निवासी राजेश कहते हैं कि दलित पिछले कई चुनावों से एक ही दल को वोट करता रहा है।

इस बार भी काफी दलित अपनी धुन के पक्के हैं, पर एक धड़ा ऐसा भी है, जो विकल्पों पर भी विचार कर रहा है। मुद्दे बदल गए हैं। सुरक्षा, सम्मान जैसी बातें हो रही हैं। ऐसे में यह जरूरी नहीं कि दलित किसी भी दल के बंधन में बंधे रहें। थानाभवन निवासी प्रमोद कुमार कहते हैं, दलित मतदाता जागरूक है। अब वह मुद्दों को परखकर ही वोट करने के मूड में है। काफी युवा मतदाता इस बात को समझ रहे हैं। युवाओं का कहना है कि किसी दल विशेष से बंधने का कोई ठोस कारण इस बार उन्हें नजर नहीं आ रहा है।

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यहां दलितों का प्रभाव
पहले चरण में आगरा में चुनाव है। यहां कुल 9 विधानसभा सीटें हैं। पिछले चुनाव में भाजपा ने यहां सभी सीटें जीत ली थीं। भाजपा की यहां प्रचंड लहर चली। बताया जा रहा है कि पिछले चुनाव में ही दलितों ने भाजपा की तरफ रुझान दिखा दिया था। भाजपा उस रुझान को बनाए रखने के लिए हर जतन कर रही है। हालांकि, बसपा यह बात बखूबी जानती है। यही कारण है कि मायावती ने अपने चुनावी समर का आगाज इस बार आगरा से ही किया। सहारनपुर, बुलंदशहर, गाजियाबाद, मेरठ, मुजफ्फरनगर आदि जिलों में भी दलित मतदाताओं की तादाद अच्छी खासी है।

कहां-कितनी ताकत
विधानसभा क्षेत्र आबादी
स्याना 57 हजार
सिकंदराबाद 70 हजार
अनूपशहर 70 हजार
शिकारपुर 62 हजार
खुर्जा 58 हजार
डिबाई 30 हजार
बुलंदशहर 60 हजार
मुरादनगर 80 हजार
मोदीनगर 55 हजार
साहिबाबाद 80 हजार
गाजियाबाद 75 हजार
सिवालखास 40 हजार
सरधना 52 हजार
हस्तिनापुर 71 हजार
किठौर 65 हजार
मेरठ कैंट 65 हजार
मेरठ शहर 13 हजार
मेरठ दक्षिण 75 हजार
आगरा एत्मादपुर 70 हजार
आगरा छावनी 95 हजार
आगरा दक्षिण 40 हजार
आगरा उत्तर 45 हजार
आगरा ग्रामीण 80 हजार
फतेहपुर सीकरी 60 हजार
खैरागढ़ 40 हजार
बाह 35 हजार
बुढ़ाना 32 हजार
चरथावल 55 हजार
खतौली 47 हजार
मीरापुर 53 हजार
मुजफ्फरनगर 22 हजार
पुरकाजी 75 हजार
शामली 35 हजार
थानाभवन 60 हजार
कैराना 10 हजार

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बीस प्रतिशत से ज्यादा आबादी…। जिसे चाहें उसे सत्ता के शिखर तक पहुंचा दें…। पहुंचाते भी रहे हैं…। बावजूद इसके पिछले कई चुनावों से स्थायी ठौर तलाश रहा दलित वर्ग इस बार काफी सोच-विचार कर रहा है। सियासी दल भी उनकी नब्ज को भांपने मेें जुटे हुए हैं। राजनीतिक दल दलितों के वोटों में हिस्सेदारी हासिल करने के लिए बेकरार हैं।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के चुनावी रण की फिजा इस समय बेहद गर्म है। सभी दलों ने पूरी ताकत झोंक रखी है। भाजपा के सामने जहां अपना पिछला रिकॉर्ड बचाने की चुनौती है, तो विपक्ष की सत्ता परिवर्तन करने की बेताबी साफ नजर आ रही है। यही कारण है कि सपा-रालोद गठबंधन ने चुनावी समर में पूरी ताकत झाेंक दी है। अखिलेश और जयंत ने अपना पूरा जोर पश्चिमी यूपी में लगा दिया है, तो भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से लेकर गृहमंत्री अमित शाह तक ने यूपी को मथ डाला है। बसपा और कांग्रेस दोनों चुनावी रण में ताल ठोक रहे हैं। गठबंधन और भाजपा दोनों की ही नजर दलित मतदाताओं पर है। दोनों ही इसमें कुछ हद तक कामयाब भी हो सकते हैं। क्योंकि, दलित वर्ग के थिंक टैंक में चल रहा मंथन भी इस ओेर इशारा कर रहा है।

समझते हैं ताकत…पहले भी कर चुके हैं कमाल

दलित मतदाता अपनी ताकत को बखूूबी समझते हैं। इसी ताकत के दम पर वे बसपा को सत्ता के शिखर तक पहुंचा चुके हैं। वर्ष 1993 में बसपा चुनावी मैदान में पहली बार उतरी। इस चुनाव में उसकी मतों में हिस्सेदारी 11.12 फीसदी की थी। बसपा ने 67 सीटों पर जीत हासिल की थी। 1996 के चुनाव में वोट शेयर बढ़कर 19.64 फीसदी हो गया। 2002 में मतों की हिस्सेदारी 23.06 प्रतिशत तक पहुंची और 98 सीटों पर उसे जीत हासिल हुई। कमाल तो वर्ष 2007 में हुआ, जब बसपा को 30.43 फीसदी वोट मिले और 206 सीटों के साथ उसने पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता हासिल की। हालांकि, इसमें बसपा सुप्रीमो मायावती की सोशल इंजीनियरिंग का कमाल रहा।

2012 के बाद गिरा ग्राफ

2012 के चुनाव में बसपा का ग्राफ गिरा और 25.95 फीसदी मतों की हिस्सेदारी के साथ बसपा 80 सीटों पर सिमटी। 2017 के चुनाव में बसपा का वोट शेयर 22.24 फीसदी ही रहा। इसका नतीजा यह हुआ कि बसपा 19 सीटों पर सिमट कर रह गई। बावजूद इसके मायावती दलित मतदाताओं के दम पर आज भी मजबूती से न केवल चुनावी रण में ताल ठोक रही हैं, बल्कि फिर से सोशल इंजीनियरिंग के दम पर चुनाव परिणाम बदलने का दावा कर रही हैं।

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