होली 2022: हिंदी, ब्रजभाषा और उर्दू के रचनाकारों को बहुत भायी है होली, साहित्य में बिखेरा प्रेम का रंग

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सार

रंगों के पर्व होली में प्रेम का रस बरसता है। हिंदी से लेकर ऊर्दू तक के साहित्य में इसकी झलक मिलती है। सूर, रहीम, रसखान से लेकर हातिम, मीर और नजीर अकबराबादी आदि रचनाकारों ने अपनी रचनाओं में होली के रंग बिखेरे हैं। 

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आम जनमानस की तरह होली हिंदी, ब्रजभाषा और उर्दू के रचनाकारों को भी बहुत भायी है। इन रचनाकारों ने अपने काव्य में होली के रंग घोलकर होली प्रेमियों को अनोखी सौगात दी है। साहित्यिक ग्रंथों के पन्ने बताते हैं संस्कृत के प्रसिद्ध कवि कालिदास ने अपनी रचना ऋतुसंहार में पूरा एक सर्ग वसंतोत्सव और होली पर लिखकर अपने होली प्रेम को दर्शाया है। चंदरबरदाई की ओर से लिखित हिंदी के प्रथम महाकाव्य पृथ्वीराज रासो में भी होली की झलक दिखाई देती है। मुगल दरबारों में भी होली का रस खूब बरसता था। 

उर्दू साहित्य में बिखरे होली के रंग  

मुगल काल के दौरान उर्दू साहित्य में होली की मस्ती और राधा कृष्ण के प्रेम को मुस्लिम कवियों ने अपने काव्य मोतियों को खूबसूरती से पिरोया है। इसमें फायज देहलवी, हातिम, मीर, कूली कुतुबशाह, महजूर, बहादुर शाह जफर, जनीर, आतिश, ख्वाजा हैदर अली, आतिश, इंशा का नाम उल्लेखनीय है। साहित्य जगत के पितामह भारतेंदु हरीशचंद्र ने उर्दू शब्दों को प्रयोग करते हुए होली पर सुंदर गजल ‘गले मुझको लगा लो ए दिलदार होली में, बुझे दिल की लगी भी तो ए यार होली में लिखी है।’ 

मुस्लिम कवियों का होली प्रेम भी किसी से छिपा नहीं है। नजीर अकबराबादी लिखते हैं ‘जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की और दफ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की’, अलाउद्दीन के समकालीन अमीर खुसरो लिखते हैं ‘दैय्या रे मोहे भिजोया री, शाह निजाम के रंग में कपडे़ रंग के कुछ न होत है, या रंग में तन मन को डुबोया री।’

सूर, रहीम, रसखान की रचनाओं में भी बिखरे होली के रंग 

भक्तिकाल और रीति काल के कवियों ने तो फाल्गुन और होली को अपनी रचनाओं में विशेष महत्व दिया है। इनकी रचनाओं को मंदिरों में गायन किया जाता है, जिन्हें समाज गायन भी कहा जाता है। आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर भक्तिकालीन कवि सूर, रहीम, रसखान, पदमाकर, जायसी, मीराबाई, कबीर तथा रीतिकाल के कवि बिहारी, केशव, घनानंद आदि का उनकी रचनाओं को देखते हुए ऐसा लग रहा है जैसे होली उनका प्रिय विषय रहा हो। सूरदास ने वसंत और होली पर 70 से अधिक पदों की रचना की है। 

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नंदगांव निवासी साहित्यकार रामशरण शर्मा ‘शरन’ बताते हैं कि अष्टछाप के कवि सूरदास, परमानंददास, कुंभनदास, चतुर्भजदास, कृष्णदास, नंददास, छीतस्वामी, गोविंददास ने होली के पदों की तमाम रचनाएं की हैं, जो आज भी राधाकृष्ण के मंदिरों में परंपरागत गायन के रूप में गाई जाती हैं। वहीं सूफी संत हजरत निजामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो और बहादुरशाह जफर ने भी होली पर सुंदर रचनाएं की हैं। आधुनिक काल के कवि प्रेमचंद की राजा हरदोल, प्रभु जोशी की अलग अलग तीलियां, तेजेंद्र शर्मा की एक बार फिर होली, ओमप्रकाश अवस्थी की होली मंगलमय हो में होली के अलग-अलग रूप दिखाई देते हैं। 

विस्तार

आम जनमानस की तरह होली हिंदी, ब्रजभाषा और उर्दू के रचनाकारों को भी बहुत भायी है। इन रचनाकारों ने अपने काव्य में होली के रंग घोलकर होली प्रेमियों को अनोखी सौगात दी है। साहित्यिक ग्रंथों के पन्ने बताते हैं संस्कृत के प्रसिद्ध कवि कालिदास ने अपनी रचना ऋतुसंहार में पूरा एक सर्ग वसंतोत्सव और होली पर लिखकर अपने होली प्रेम को दर्शाया है। चंदरबरदाई की ओर से लिखित हिंदी के प्रथम महाकाव्य पृथ्वीराज रासो में भी होली की झलक दिखाई देती है। मुगल दरबारों में भी होली का रस खूब बरसता था। 

उर्दू साहित्य में बिखरे होली के रंग  

मुगल काल के दौरान उर्दू साहित्य में होली की मस्ती और राधा कृष्ण के प्रेम को मुस्लिम कवियों ने अपने काव्य मोतियों को खूबसूरती से पिरोया है। इसमें फायज देहलवी, हातिम, मीर, कूली कुतुबशाह, महजूर, बहादुर शाह जफर, जनीर, आतिश, ख्वाजा हैदर अली, आतिश, इंशा का नाम उल्लेखनीय है। साहित्य जगत के पितामह भारतेंदु हरीशचंद्र ने उर्दू शब्दों को प्रयोग करते हुए होली पर सुंदर गजल ‘गले मुझको लगा लो ए दिलदार होली में, बुझे दिल की लगी भी तो ए यार होली में लिखी है।’ 

मुस्लिम कवियों का होली प्रेम भी किसी से छिपा नहीं है। नजीर अकबराबादी लिखते हैं ‘जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की और दफ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की’, अलाउद्दीन के समकालीन अमीर खुसरो लिखते हैं ‘दैय्या रे मोहे भिजोया री, शाह निजाम के रंग में कपडे़ रंग के कुछ न होत है, या रंग में तन मन को डुबोया री।’

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