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सार
बसपा के वरिष्ठ नेता का कहना है कि रुझानों से राजनीतिक तस्वीर का आकलन नहीं किया जाना चाहिए। वे कहते हैं कि जो जनादेश होगा उसके आधार पर ही उनकी पार्टी आगे की रणनीति तय करेगी। वह कहते हैं कि 2014 के लोकसभा चुनावों में पार्टी का एक भी प्रत्याशी सांसद का चुनाव नहीं जीत सका था, लेकिन 2019 में पार्टी ने बंपर तरीके से वापसी की और लोकसभा में 10 सांसदों के साथ पार्टी और जनता का प्रतिनिधित्व करना शुरू कर दिया…
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों के बाद आए एग्जिट पोल में बसपा की मजबूत जमीन अभी भी बनती हुई नहीं दिख रही है। डेढ़ दशक पहले उत्तर प्रदेश में धमक के साथ शासन करने वाली मायावती को अब अपने ही असली वोट बैंक के खिसकने का खतरा न सिर्फ महसूस होने लगा है बल्कि दिखने भी लगा है। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि अगर दलितों की राजनीति को आगे लेकर जाना है तो मायावती समेत बसपा नेतृत्व को अपने कुनबे से बाहर आकर जनता के बीच में पहुंचना ही होगा। जैसा कि इस वक्त सभी राजनैतिक दल कर रहे हैं।
सोमवार को उत्तर प्रदेश में चुनाव खत्म होने के बाद जैसे ही चुनावी रुझान आने शुरू हुए उसमें बसपा की खिसकी हुई राजनीतिक जमीन वापस नहीं मिलने के संकेत मिलने लगे। सोमवार को आए ज्यादातर रुझानों में बसपा का 2007 वाला जलवा नहीं दिखा। दो या तीन एग्जिट पोल को छोड़ दिया जाए तो ज्यादातर ने बसपा को दहाई से भी नीचे आंका है। दलित चिंतक और उत्तर प्रदेश की राजनीति को बखूबी समझने वाले प्रोफेसर राजकुमार सिंह कहते हैं कि रुझानों पर कोई कमेंट तो नहीं करना चाहिए, लेकिन चुनावी रुझान कुछ हद तक दशा और दिशा तो बता ही देते हैं। वह कहते हैं उन्होंने सभी एग्जिट पोल देखे हैं। किसी ने भी बसपा को बहुत मजबूत स्थिति में नहीं दिखाया है। वह कहते हैं कि एग्जिट पोल बिल्कुल सच हों यह तो नहीं कह सकते लेकिन इसमें थोड़ा बहुत सच के आसपास की तस्वीर आती ही है।
बड़े नेताओं को मैदान में उतरना होगा
प्रोफ़ेसर सिंह के मुताबिक बीते कुछ सालों में बसपा और उसके नेतृत्व ने जिस तरीके से न सिर्फ उत्तर प्रदेश बल्कि अन्य राज्यों में अपना जनाधार खोया है वह पूरी पार्टी के लिए खतरे की घंटी है। उनका कहना है कि अगर पार्टी को अपना अस्तित्व बचाना है और अपने खोए हुए जनाधार को वापस लाना है तो बसपा के सभी बड़े नेताओं को उसी धुआंधार तरीके से मैदान में आना होगा जैसे सपा और कांग्रेस पार्टी कोशिश कर रही है।
उत्तर प्रदेश के राजनीतिक विश्लेषक प्रोफ़ेसर कुमार जगदीश कहते हैं, बसपा के नेतृत्व को अब समझ लेना चाहिए कि जो कभी उनका अपना वोट बैंक होता था उसमें सेंधमारी शुरू हो गई है। वे कहते हैं कि इस बार जो रुझान अलग-अलग एजेंसियों ने सर्वे के तौर पर जारी किए हैं उनको देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि बसपा का अपना कोर वोट बैंक भी भारतीय जनता पार्टी में शिफ्ट होने लगा है। वह कहते हैं इसकी सबसे बड़ी वजह सत्ताधारी पार्टी की वह कल्याणकारी योजनाएं हैं जो सबसे ज्यादा बसपा के वोटरों को ही लुभा रही है। वह कहते हैं कि संभव है जो रुझान बसपा के लिए सोमवार को जारी हुए हैं उससे कुछ ज्यादा बेहतर तस्वीर 10 मार्च को हो, लेकिन ऐसी तस्वीर नहीं होगी जो 2007 में बसपा की थी। उनका कहना है कि बसपा अब कांग्रेस की राह पर चल निकली है। वे कहते हैं जिस तरीके से अपनी लचर नीति और नेतृत्व के चलते उत्तर प्रदेश में कांग्रेस बीते तीन दशक से सत्ता से बाहर है अगर यही हालात रहे तो बसपा के लिए भी आने वाले दिनों में कुछ ऐसी ही तस्वीर सामने आ सकती है।
बसपा को कमजोर न आंकें
हालांकि बसपा के वरिष्ठ नेता का कहना है कि रुझानों से राजनीतिक तस्वीर का आकलन नहीं किया जाना चाहिए। वे कहते हैं कि जो जनादेश होगा उसके आधार पर ही उनकी पार्टी आगे की रणनीति तय करेगी। वह कहते हैं कि 2014 के लोकसभा चुनावों में पार्टी का एक भी प्रत्याशी सांसद का चुनाव नहीं जीत सका था, लेकिन 2019 में पार्टी ने बंपर तरीके से वापसी की और लोकसभा में 10 सांसदों के साथ पार्टी और जनता का प्रतिनिधित्व करना शुरू कर दिया। वे कहते हैं कि ऐसा कौन सा दल है जो सत्ता से बाहर नहीं रहता। इसलिए किसी भी राजनीतिक दल को सत्ता से बाहर रहने पर कमजोर नहीं आंकना चाहिए।
बसपा के वरिष्ठ नेता का कहना है कि पार्टी लगातार अपने समर्थकों और कार्यकर्ताओं के साथ न सिर्फ संपर्क में है बल्कि अपना कुनबा भी बड़ा करती जा रही है। बसपा पूरे देश में सर्वजन के लिए बड़ा मजबूत नेटवर्क तैयार कर रही है। हालांकि बसपा के उक्त नेता से वास्ता न रखने वाले राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में बसपा को अपना आकलन और उसकी तुलना नहीं करनी चाहिए। वह कहते हैं कि 2019 में बसपा ने समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था। यह बात अलग है कि उस चुनाव में समाजवादी पार्टी को बिल्कुल फायदा नहीं हुआ। जबकि उसी गठबंधन के चलते बसपा को 10 सीटें मिली थीं।
विस्तार
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों के बाद आए एग्जिट पोल में बसपा की मजबूत जमीन अभी भी बनती हुई नहीं दिख रही है। डेढ़ दशक पहले उत्तर प्रदेश में धमक के साथ शासन करने वाली मायावती को अब अपने ही असली वोट बैंक के खिसकने का खतरा न सिर्फ महसूस होने लगा है बल्कि दिखने भी लगा है। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि अगर दलितों की राजनीति को आगे लेकर जाना है तो मायावती समेत बसपा नेतृत्व को अपने कुनबे से बाहर आकर जनता के बीच में पहुंचना ही होगा। जैसा कि इस वक्त सभी राजनैतिक दल कर रहे हैं।
सोमवार को उत्तर प्रदेश में चुनाव खत्म होने के बाद जैसे ही चुनावी रुझान आने शुरू हुए उसमें बसपा की खिसकी हुई राजनीतिक जमीन वापस नहीं मिलने के संकेत मिलने लगे। सोमवार को आए ज्यादातर रुझानों में बसपा का 2007 वाला जलवा नहीं दिखा। दो या तीन एग्जिट पोल को छोड़ दिया जाए तो ज्यादातर ने बसपा को दहाई से भी नीचे आंका है। दलित चिंतक और उत्तर प्रदेश की राजनीति को बखूबी समझने वाले प्रोफेसर राजकुमार सिंह कहते हैं कि रुझानों पर कोई कमेंट तो नहीं करना चाहिए, लेकिन चुनावी रुझान कुछ हद तक दशा और दिशा तो बता ही देते हैं। वह कहते हैं उन्होंने सभी एग्जिट पोल देखे हैं। किसी ने भी बसपा को बहुत मजबूत स्थिति में नहीं दिखाया है। वह कहते हैं कि एग्जिट पोल बिल्कुल सच हों यह तो नहीं कह सकते लेकिन इसमें थोड़ा बहुत सच के आसपास की तस्वीर आती ही है।
बड़े नेताओं को मैदान में उतरना होगा
प्रोफ़ेसर सिंह के मुताबिक बीते कुछ सालों में बसपा और उसके नेतृत्व ने जिस तरीके से न सिर्फ उत्तर प्रदेश बल्कि अन्य राज्यों में अपना जनाधार खोया है वह पूरी पार्टी के लिए खतरे की घंटी है। उनका कहना है कि अगर पार्टी को अपना अस्तित्व बचाना है और अपने खोए हुए जनाधार को वापस लाना है तो बसपा के सभी बड़े नेताओं को उसी धुआंधार तरीके से मैदान में आना होगा जैसे सपा और कांग्रेस पार्टी कोशिश कर रही है।
उत्तर प्रदेश के राजनीतिक विश्लेषक प्रोफ़ेसर कुमार जगदीश कहते हैं, बसपा के नेतृत्व को अब समझ लेना चाहिए कि जो कभी उनका अपना वोट बैंक होता था उसमें सेंधमारी शुरू हो गई है। वे कहते हैं कि इस बार जो रुझान अलग-अलग एजेंसियों ने सर्वे के तौर पर जारी किए हैं उनको देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि बसपा का अपना कोर वोट बैंक भी भारतीय जनता पार्टी में शिफ्ट होने लगा है। वह कहते हैं इसकी सबसे बड़ी वजह सत्ताधारी पार्टी की वह कल्याणकारी योजनाएं हैं जो सबसे ज्यादा बसपा के वोटरों को ही लुभा रही है। वह कहते हैं कि संभव है जो रुझान बसपा के लिए सोमवार को जारी हुए हैं उससे कुछ ज्यादा बेहतर तस्वीर 10 मार्च को हो, लेकिन ऐसी तस्वीर नहीं होगी जो 2007 में बसपा की थी। उनका कहना है कि बसपा अब कांग्रेस की राह पर चल निकली है। वे कहते हैं जिस तरीके से अपनी लचर नीति और नेतृत्व के चलते उत्तर प्रदेश में कांग्रेस बीते तीन दशक से सत्ता से बाहर है अगर यही हालात रहे तो बसपा के लिए भी आने वाले दिनों में कुछ ऐसी ही तस्वीर सामने आ सकती है।
बसपा को कमजोर न आंकें
हालांकि बसपा के वरिष्ठ नेता का कहना है कि रुझानों से राजनीतिक तस्वीर का आकलन नहीं किया जाना चाहिए। वे कहते हैं कि जो जनादेश होगा उसके आधार पर ही उनकी पार्टी आगे की रणनीति तय करेगी। वह कहते हैं कि 2014 के लोकसभा चुनावों में पार्टी का एक भी प्रत्याशी सांसद का चुनाव नहीं जीत सका था, लेकिन 2019 में पार्टी ने बंपर तरीके से वापसी की और लोकसभा में 10 सांसदों के साथ पार्टी और जनता का प्रतिनिधित्व करना शुरू कर दिया। वे कहते हैं कि ऐसा कौन सा दल है जो सत्ता से बाहर नहीं रहता। इसलिए किसी भी राजनीतिक दल को सत्ता से बाहर रहने पर कमजोर नहीं आंकना चाहिए।
बसपा के वरिष्ठ नेता का कहना है कि पार्टी लगातार अपने समर्थकों और कार्यकर्ताओं के साथ न सिर्फ संपर्क में है बल्कि अपना कुनबा भी बड़ा करती जा रही है। बसपा पूरे देश में सर्वजन के लिए बड़ा मजबूत नेटवर्क तैयार कर रही है। हालांकि बसपा के उक्त नेता से वास्ता न रखने वाले राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में बसपा को अपना आकलन और उसकी तुलना नहीं करनी चाहिए। वह कहते हैं कि 2019 में बसपा ने समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था। यह बात अलग है कि उस चुनाव में समाजवादी पार्टी को बिल्कुल फायदा नहीं हुआ। जबकि उसी गठबंधन के चलते बसपा को 10 सीटें मिली थीं।
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