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मौरावां। होली को लेकर बाजार पूरी तरह से तैयार हो गए हैं। बाजारों में उपलब्ध रंग-बिरंगी टोपी, पगड़ी मुखौटों के साथ नए-नए रंग, पिचकारी, अबीर- गुलाल के साथ इस बार अनार और थंडर सिलिंडर लोगों को खूब आकर्षित कर रहे हैं।
कस्बे की बाजार में होली को लेकर प्राकृतिक (हर्बल) रंगों के साथ टोपी, पगड़ी, कुर्ता-पजामा आदि परिधान उपलब्ध हैं। इसके अलावा आलू व चावल से निर्मित विभिन्न प्रकार के रंगों व डिजाइनर चिप्स, पापड़ आदि की दुकानें सज गई हैं। इस बार बाजारों में अबीर गुलाल वाले ऐसे अनार उपलब्ध हो गए हैं जिन्हें लोग पटाखों की तर्ज पर फोड़कर एक दूसरे को रंग से सराबोर कर सकेंगे।
रंगों से भरे अनार को जलाकर होली का उल्लास दो गुना हो सकता है। यही नहीं लोगों के बीच में रंग-गुलाल उड़ाने के लिए थंडर सिलिंडर भी मौजूद है। अनार और थंडर सिलिंडर यह दोनों नए आइटम लोगों की पहली पसंद बन रहे हैं। थंडर सिलिंडर में पांच किलो से लेकर 10 किलो तक अबीर-गुलाल भरा जा सकता है। मौरावां, अकोहरी, हिलौली, मवई, भवानीगंज आदि बाजारों में खरीदारों की भीड़ बढ़ने लगी है।
बिछिया। रंगों के त्योहार होली को लेकर सभी में उत्साह है। ग्रामीण इलाकों में तो खास तौर पर तैयारियों ने जोर पकड़ लिया है। इसमें उपले (बल्ले) बनाने का काम तेजी के साथ चल रहा है।
होलिका दहन में प्रयोग होने वाले उपलों को गाय के गोबर से बनाने का काम महिलाएं फाल्गुन कृष्ण पक्ष की अमावस्या के बाद शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि से शुरू कर देती हैं। इस समय गांवों में उपले (बल्ले) बनाए जा रहे हैं। तारगांव की यशोदा देवी, बड़ौरा की मंजू व पर्डीकला की आरती देवी ने बताया कि फागुन मास में एक अलग ही उत्साह देखने को मिलता है।
एक माह पहले से ही तैयारियां शुरू हो जाती हैं। घर की साफ सफाई के साथ उपले बनाने का काम शुरू हो जाता है। पापड़ व गुझिया सहित अन्य पकवान भी बनने लगते हैं। वहीं फाग भी शुरू हो जाता है। हालांकि महिलाओं का कहना है कि पूर्व और अब की होली में काफी अंतर आ गया है। अधिकांश लोग कामधंधे के सिलसिले में शहर चले गए हैं। त्योहार के एकाध दिन पहले ही लौटते हैं। जिस कारण त्योहार की रौनक कुछ कम पड़ गई है।
टोलियों में निकलकर फागुन गीत गाकर मिलते थे गले
कटरा चेतराय खेड़ा निवासी बुजुर्ग वंश गोपाल ने बताया कि पहले और अब की होली पर्व में बहुत बदलाव हो चुका है। किशोरावस्था में हम भी फगुआरों की टोली के साथ घूमते, लोगों से मिलते और मिठाई में शक्कर के बताशे व गुड़ इकट्ठा करते थे। बताया कि फाग, गायन और मनोरंजन के साथ ही लोगों से मिलने और परिचित होने का एक बड़ा माध्यम था। सभी एक दूसरे के बच्चों से भी परिचित होते थे। अगर किसी से झगड़ा या मनमुटाव भी होता था तो उसके दरवाजे पर भी जाकर मिलते थे और गले मिलते थे। अब तो लोग इस त्योहार पर खुन्नस का बदला लेने का मौका तलाशते हैं। बताया कि हमारे पर्व आपसी सौहार्द और भाई चारे का प्रतीक हैं। इन्हें उसी रूप में मनाना चाहिए।
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